उपलब्धियां

पूर्वी क्षेत्र में मृदाओं, भूमि की क्षमता, वर्ग और भूमि के विभिन्‍न रूप :

जीआईएस परिवेश में पूर्वी क्षेत्र की मृदा और भूमि क्षमताओं के विषयगत (थीमेटिक) मानचित्रों को तैयार किया गया तथा बाढ़ वाले मैदानी भागों के विभिन्‍न प्रकार की भूमिरूपों जैसे कि ताल, चौर, माउन तथा दियारा की पहचान के लिए गूगल मानचित्र की प्रोसेसिंग की गई। 

वेब-समर्थित मल्‍टीमीडिया आधारित फसल सूचना प्रणालियों का विकास:

ए) प्रयोक्‍ता इंटरएक्टिव वेब-समर्थित मल्‍टीमीडिया आधारित फसल सूचना प्रणाली को विकसित करने के लिए  MS-Access और MySQL सॉफ्टवेयर पैकेज का उपयोग करके कुछ चुनिंदा फसलों के संबंध में आंकड़ों के संग्रहण हेतु एक डाटा बेस को प्रकल्पित (डिजाइन) किया गया है।

बी) पीएचपी, ड्रीम वीवर और MS-Access सॉफ्टवेयरों के उपयोग से चावल, गेहूं और मक्‍के को शामिल करते हुए अनाज वाली फसलों के लिए पैकेज ऑफ प्रेक्टिस (बुवाई प्रकियाएं) के लिए एक वेब-समर्थित फसल सूचना प्रणाली को विकसित किया गया है।

सी) चावल, गेहूं, मक्‍का, अरहर, मसूर और मूंग हेतु पैकेज ऑफ प्रेक्टिस (बुवाई प्रकियाएं) पर एक वेब-समर्थित मल्‍टीमीडिया आधारित फसल सूचना प्रणाली को विकसित किया गया है।

दक्षिणी बिहार के चावल-गेहूं प्रणाली के तहत मृदा और फसलों पर टिलर और जल प्रबंधन प्रकियाओं का प्रभाव:

ए) वैकल्पिक वर्ष की अपेक्षा तीन वर्ष पश्‍चात ग्रीष्‍म में गहरी जुताई को बेहतर पाया गया तथा विशेषकर सीमित जल आपूर्त्ति की दशाओं में ग्रीष्‍मकालीन गहरी जुताई के लाभकारी प्रभाव प्राप्‍त किए जा सकते हैं।

बी) दक्षिण बिहार के चावल-गेहूं फसलक्रम हेतु जल प्रबंधन प्रक्रियाओं के मूल्‍यांकन में चावल की खेती के लिए गहरी ग्रीष्‍मकालीन जुताई (डीएसपी) उपचारों को गैर-डीएसपी उपचारों की अपेक्षा उत्‍कृष्‍ट पाया गया। इसके तुरंत पश्‍चात ली जाने वाली गेहूं की फसल पर डीएसपी के अपशिष्‍ट प्रभाव (रेसिड्युअल इफेक्‍ट) से यह संकेत मिलता

है कि प्रत्‍येक वर्ष डीएसपी अपनाने पर पारंपरिक विधि की अपेक्षा गेहूं में अधिक अनाज की उपज प्राप्‍त की जा सकती है। 

चावल प्रणाली का तुलनात्मक प्रदर्शन – पारंपरिक चावल प्रबंधन के साथ विभिन्न प्‍लांट जियोमेट्री (पादप ज्यामिति) और जल व्‍यवस्‍थाओं में फसल तीव्रता: चावल की खेती में चावल की सघनता (SRI) तकनीक पर किए गए अध्ययनों से यह संकेत मिलता है कि 25 x 25 सेमी की दूरी पर धान की रोपाई करने और खेत में जल जमाव के समाप्‍त होने के पश्‍चात 6 सेमी सिंचाई देने पर अनाज और पुआल की अधिकतम पैदावार प्राप्त हुई ।

वर्षा पर निर्भर बिहार  के लिए वैकल्पिक भूमि उपयोग प्रणाली (कृषि-वन चरागाह):

  • खरीफ, रबी और गर्मियों के दौरान सुबबुल को जब गिनी घास + लोबिया/मटर/लोबिया के साथ अंत: फसल के रूप में लिया गया तो क्रमश: चारा और ईंधन लकड़ी की अधिकतम 44 और 4.8 टन/हे./वर्ष की उपज तथा मानव उपभोग के लिए 2 टन/हे. हरी मटर की फली प्राप्‍त हुई ।

पानी के बहु उपयोग द्वारा भूमि और जल की उत्पादकता बढ़ाने के लिए रणनीतियाँ:

विभिन्न प्रणालियों के तहत पानी के बहु उपयोग पर 2 साल के आंकड़ों के आर्थिक विश्लेषण से यह संकेत मिलता है कि चावल-गेहूं प्रणाली में मछली को शामिल करने से 29,694 / हेक्टेयर, रुपये की शुद्ध आय हुई जो पारंपरिक रूप से चावल-गेहूं उगाने की तुलना में 6% अधिक है तथा इससे प्राप्‍त आय 27,965 / हेक्टेयर रुपए प्रति वर्ष थी। 1 मीटर तक की गहराई वाले मौसमी जलभराव वाले क्षेत्रों में मत्‍स्‍य खाई (फिश ट्रेंच) तथा उठी हुई क्‍यारियों में बागवानी फसलों + मत्‍स्‍य प्रणाली अपनाने से पारंपरिक चावल-गेहूं प्रणाली की तुलना में 189 प्रतिशत अधिक अर्थात रू. 80,951/हे./वर्ष की शुद्ध आय का सृजन हुआ। भूजल के साथ सीपेज युक्‍त गौण जलाशयों के तहत मेड़ों पर बागवानी फसलों + मत्‍स्‍य पालन + बत्‍तख पालन अपनाने पर पारंपरिक चावल-गेहूं प्रणाली की तुलना में 374 प्रतिशत अधिक अर्थात रुपये 1,32,590/हे0/ वर्ष की शुद्ध आय प्राप्‍त हुई।  परिणामों से यह संकेत मिलता है कि स्थायी तौर पर या मौसमी रूप से जलभराव वाले क्षेत्रों में मछली पालन + बागवानी + बत्‍तख पालन को एकसाथ अपनाने पर जल उत्पादकता को काफी हद तक बढ़ाया जा सकता है। में जबरदस्त वृद्धि का संकेत देते हैं।    

किफायती दबावयुक्‍त सिंचाई प्रणाली:

ए) LEWA (लो एनर्जी वॉटर एप्लीकेशन) डिवाइस के संचालन के लिए इष्टतम दबाव को 0.4 – 0.6 किग्रा/ वर्ग सेमी के रेंज में पाया गया। ऑपरेटिंग दबाव के इस रेंज हेतु क्रिस्टियसॅन यूनिफॉर्मिटी (सीयू) का मान 55 से 70 फीसदी (पंक्ति से पंक्ति और नोजल- 6 मीटर) के बीच पाया गया।

b) संशोधित LEWA डिवाइस का परीक्षण किया गया और चावल और गेहूं के खेतों में पानी और ऊर्जा की बचत के लिए इसकी तुलना एकल नोजल वाले स्प्रिंकलर के साथ की गई। यह देखा गया कि इसे अपनाने पर चावल की खेती में 50 प्रतिशत से अधिक पानी और 60 प्रतिशत से अधिक ऊर्जा (डीजल) की बचत होती है, जबकि गेहूँ के मामले में पानी की बचत स्प्रिंकलर के मुकाबले 15 प्रतिशत, सतही सिंचाई के मुकाबले 50 प्रतिशत तक जल की बचत हुई और सतही सिंचाई और स्प्रिंकलर से सिंचाई की अपेक्षा लगभग 50 प्रतिशत ऊर्जा की बचत हुई। 

विभिन्‍न फसलों के लिए दबावयुक्‍त सिंचाई प्रणाली के डिजाइन और लेआउट के लिए निर्णय समर्थन प्रणाली का विकास:

 ए) सभी प्रकार की निवेश सामग्री, मोटर पंप की हॉर्सपावर क्षमता तथा ड्रिप सिंचाई प्रणाली में मोटर पंप की क्षमता को किस प्रकार से न्‍यूनतम किया जाए की गणना हेतु MS-EXCEL  में एक मॉडल विकसित किया गया।

  1. b) तकनीकी-आर्थिक निर्णयों को सुविधाजनक बनाने के लिए प्रेशराइज्ड सिंचाई प्रणाली के डिजाइन और लेआउट हेतु विजुअल बेसिक में एक ग्राफिक यूजर इंटरफेस डिसीजन सपोर्ट सिस्टम विकसित किया गया ।

चावल में अजैविक तनाव सहिष्णुता में सुधार हेतु क्रियात्‍मक प्रबंधन:

सूखाग्रस्‍त स्थिति में चावल की 12 उच्‍च उपजशील किस्‍मों (HYVs) को उगाया गया और फसल वृद्धि के विभिन्‍न अंतरालों पर उनकी विशेषताओं का विश्लेषण किया गया। सूखे की स्थिति में चावल की इन सभी बारह किस्मों में गैस विनिमय प्राचलों, प्रोलिन अंश और प्रोटीन प्रोफाइल को मापा गया।

फसल योजना और फसल की उपज के इष्‍टतमीकरण हेतु किसान-अनुकूल निर्णय समर्थन साधनों का विकास:

विजुअल बेसिक प्लेटफॉर्म की सहायता से हिंदी और अंग्रेजी में निर्णय समर्थन टूल विकसित किया गया। लाभ-लागत अनुपात, भूमि उत्पादकता और जल उत्पादकता जैसे तीन महत्वपूर्ण संकेतों पर विचार करते हुए फसल और फसल-क्रम के चयन का निर्णय लेने में यह मॉडल किसानों की मदद करने में सक्षम है।

बिहार के सिंचित और बारानी दशाओं में चारा उत्‍पादन नीतियों का विकास:

ए) वर्षा की मदद से चारा फसलें में अच्‍छी वृद्धि पाई गई। बी) बारानी और सिंचित दोनों ही स्थितियों में वर्ष भर चारा उगाने के लिए खेतों में परीक्षण किए गए। बकरियों में औसत चारा उपभोग को ताजे चारे के आधार पर 1.25 किग्रा बरसीम/पशु/दिन, 0885 किग्रा सरसों/पशु/दिन, 1.18 किग्रा जई/पशु/दिन तथा 0.182 किग्रा संकर नेपियर/पशु/दिन पाया गया। जैविक रूप से उगाए गए सरसों चारे की उपज 5.72 टन/हे. तथा जई की उपज को 21.05 टन/हे. पाया गया।

मॉडल जैविक फार्म की स्थापना (जैविक खेती की प्रक्रियाओं का विकास):

जैविक कृषि प्रणाली पर किए गए अध्ययनों में देखा गया कि गैर-उपचार (कंट्रोल) की तुलना में विभिन्न प्रकार के जैविक स्रोतों को प्रयुक्‍त करने पर चावल की उपज में उल्‍लेखनीय वृद्धि में मदद मिलती है। वर्मीकंपोस्ट को 6.66 टन/हे. की दर से स्प्लिट डोज (विभाजित खुराक) में 50% बेसल के रूप में और शेष आधी खुराक को अधिकतम टिलरिंग तथा पुष्‍पगुच्‍छ निकलते समय दो समान भागों में टॉप ड्रेसिंग के रूप में प्रयुक्‍त करने पर 2.87 टन/हे. चावल की दाना उपज प्राप्‍त हुई जो कि गैर-उपचारित अवस्‍था (कंट्रोल) से 137% अधिक है। जैविक खेती में मछली आधारित बागवानी प्रणाली के तहत 20,000 उंगलिमीन/हे. की दर से कटला, सिल्वर कार्प, ग्रास कार्प, मृगल, कॉमन कार्प और रोहू के 2-5 सेंटीमीटर साइज के फ्राई को 1.5:1, 5:2, 0:2, 0:1, 1.5:1.5  के अनुपात में संग्रह (स्‍टाकिंग) करके कार्प मछलियों का बहुपालन किया गया। 

मक्‍के की विवेक संकर क्‍यूपीएम-9 किस्‍म के संकर बीजों का उत्‍पादन:  

दोनों प्रकार जनकों (पैरेंट) के लिए अनुकूलतम बुवाई तिथि के मूल्‍यांकन के पश्‍चात बिहार के पूर्वी क्षेत्र में व्‍यावसायिक पैमाने पर विवेक क्‍यूपीएम-9 के संकर बीज के उत्‍पादन को प्रारंभ किया जा सकता है। 

बिहार के पटना जिले के चावल और गेहूं फसल-क्रम में कीट व नाशीकीटों का सर्वेक्षण और निगरानी:

ए) चावल की फसल में 28 प्रकार के कीट व व्‍याधियों की पहचान की गई। फसलों की वानस्‍पतिक और परिपक्‍वता की अपेक्षा पुष्‍पन और दूधिया स्‍तर (मिल्‍की स्‍टेज) में अधिक कीटों को फसलों की ओर आकर्षित करती है। धूप वाले दिनों की अपेक्षा आर्द्र और वर्षा के मौसम में कीटों की अधिक सघनता दर्ज की गई। 

बी) सितंबर के प्रथम सप्‍ताह में चावल की सत्‍यम किस्‍म में, गंधी बग की संख्‍या को ईटीएल (2.7 बग/हिल) से अधिक दर्ज किया गया। सब्‍जपुरा फार्म के कई हिस्‍सों में मिली बग (ब्रेवेनिया रेही ) के संक्रमण को 10-15% के अनुपात में देखा गया।

सी) सीआर फार्म और सब्‍जपुरा फार्म  में चावल की विभिन्‍न किस्‍मों के वानस्पतिक, पुष्‍पण, दूधिया स्‍टेज और परिपक्वता अवस्‍था में कीटों व हानिकारक जीवों का सर्वेक्षण किया गया। फसल स्थापना के शुरुआती महीनों में लगातार लंबे सूखे के कारण, बीपीटी -5204 में वानस्पतिक अवस्था में और सीआर फार्म और सब्‍जपुरा के किस्‍मगत प्रायोगिक प्‍लॉटों में दीमक (ओडोन्टर्मिस प्रजाति) का संक्रमण पाया गया। किस्‍मगत परीक्षण में नुकसान की तीव्रता बीपीटी-5204 में 6.77% प्रति हिल और एरोबिक चावल में 8.67% दर्ज की गई। एमटीयू -7029 में सब्‍जपुरा फार्म में मिली बग (ब्रेवेनिया रेही) संक्रमण की तीव्रता 25.9% तक देखी गई। चावल के सीड बग (लेप्टोकोरिसा ओटोरियस) को सत्यम (औसत 1.5 बग/हिल) और बीपीटी -5204 (औसत 1.2 बग/हिल) में ईटीएल (1-2 बग/हिल) से ऊपर पाया गया। बीपीटी-5204 की परिपक्वता अवस्था (औसत 1.0/ /हिल) में वयस्‍क लीफ फोल्‍डर (नेफेलोक्रोसिस मेडिनेलिस) का औसत घनत्व अधिकतम दर्ज किया गया। हालांकि, चावल की फसल में कोई नुकसान नहीं देखा गया, क्योंकि लीफ फोल्‍डर के लार्वा स्‍टेज ने फसल को उसके वानस्‍पतिक वृद्धि की अवस्‍था में नुकसान पहुंचाया। ग्रीन लीफ हॉपर (हरा फुदका) और येलो स्‍टेम बोरर (पीला तना छेदक) के प्रभाव को 0.2-0.4/हिल तक पाया गया। पिछले वर्षों की तुलना में कीट का घनत्व कम दर्ज किया गया।

डी) दो नए कोलेप्‍टरन बीटल, हैप्लोक्रस फैसिआटस फैब्रिसियस, (कुल: मेलिराइडी) और गोनोसेफेलम स्‍पी (कुल: टेनेब्रिओनिडी) की पहचान की गई। चावल की फसल में हैप्लोक्रस फैसिआटस को पहले नहीं पाया गया था। हैप्लोक्रस फैसिआटस को वानस्पतिक बीटल के रूप में जाना जाता है, क्‍योंकि यह प्रारंभिक वनस्पति अवस्था में धान की फसल को खा जाता है। पिछले दो वर्षों से धान की फसल में गन्ने का एक और हेमिपेरेटन कीट, पाइरिला परपुसिला (कुल: फुलगोराइडी) को भी देखा गया है। कीट समूहों में यह बदलाव अनिश्चित वर्षा के कारण हो सकता है; परिणामस्‍वरूप जीवित रहने के लिए कीट वैकल्पिक होस्‍ट पौधों को अपना रहे हैं। स्थानीय परिस्थितियों के तहत चावल के हूपर कीट के लिए आईपीएम प्रक्रियाओं का मूल्यांकन: फुदका (हॉपर) कीटों के प्रबंधन हेतु पर्यावरणीय रूप से सुरक्षित, आर्थिक रूप से व्यवहार्य और प्रभावी तकनीक खोजने के लिए आईपीएम प्रथाओं के मूल्यांकन पर एक अध्ययन किया गया। यह देखा गया है कि पिछले वर्ष की तरह, इस वर्ष भी जुलाई और अगस्त में लंबे सूखे का सामना करना पड़ा परिणामस्वरूप उच्च तापमान और कम आर्द्रता पाई गई। चूंकि हॉपर में प्रजनन गतिविधियों की शुरुआत के लिए 4-5 दिन की लगातार बारिश और उच्च आर्द्रता की आवश्यकता होती है, परिणामस्‍वरूप प्रयोगात्मक खेतों में फसलीय मौसम के दौरान, ब्राउन प्‍लांट हॉपर (नीलापर्वत लुगेंस) और व्‍हाइट बैक्‍ड प्‍लांट हॉपर (सोगेटेला फरिसीफेरा) को दर्ज नहीं किया गया था। हालांकि, फसल की दूधिया अवस्था (मिल्किंग स्‍टेज) में ग्रीन लीफ हॉपर (नेफोटेटिक्स विरेन्सेंस) को कम संख्या में पाया गया जिनका रेंज 0.2-0.4 हॉपर/हिल और 2-3, हॉपरों को स्वीप नेट में पाए गए।

बिहार में पटना जिले के मनेर ब्लॉक के कुछ हिस्सों की भूजल गुणवत्ता का लक्षणवर्णन और वर्गीकरण:

ए) पटना जिले के मनेर ब्लॉक के विभिन्न भागों के भूजल की गुणवत्ता के लक्षण वर्णन और वर्गीकरण से पता चलता है कि कम गहराई वाले भूजल में आर्सेनिक और लोहे की अधिक मात्रा होती है जबकि अधिक गहराई वाले भूजल में इसकी कम मात्रा पाई गई।

बी) पटना जिले के मनेर ब्लॉक में भूजल की गुणवत्ता का वर्णन और वर्गीकरण से पता चलता है कि मिट्टी की गहराई के साथ आर्सेनिक अंश में 1.65 पीपीएम से बढ़कर 2.20 पीपीएम तक हो जाती है जो सब्जी और अनाज की फसलों में 2.0 पीपीएम से 5.0 पीपीएम तक एकत्र हो जाती है। इस क्षेत्र में आर्सेनिक और लोहे के वितरण के लिए स्थानिक विषयगत मानचित्र भी विकसित किए गए।

सी) पटना जिले के मनेर ब्लॉक के विभिन्न हिस्सों में भूजल गुणवत्ता के लक्षण वर्णन और वर्गीकरण में यह देखा गया कि आर्सेनिक से संदूषित पानी से सिंचाई करने के कारण अध्ययन क्षेत्र में उगाई जाने वाली विभिन्न फसलों में आर्सेनिक की मात्रा जमा हो रही थी। ज्वार, मक्का और धान, सब्जियों और तिलहन (तिल) के पौधों के विभिन्न हिस्सों में आर्सेनिक अंश का विश्लेषण किया गया। कांग्रेस घास में भी आर्सेनिक की मात्रा का  आकलन किया गया था, जो अध्ययन क्षेत्र में उगने वाली एक प्रमुख खरपतवार है।

डी) यह देखा गया कि सब्जियों, तिलहन और कांग्रेस घास के भूसतह के ऊपर वाले भागों में आर्सेनिक की मात्रा जमीन के भीतरी भाग अर्थात जड़ की तुलना में अधिक थी। यह देखा गया कि जमीन के भीतरी भाग (0.24 मिग्रा/किग्रा) की तुलना में ऊपरी भागों अर्थात पत्ती + तिलहन (तिल) के तने में आर्सेनिक की मात्रा उच्चतम (0.52 मिग्रा/किग्रा) थी। इसके विपरीत, अनाज में जमीन के निचले भाग (0.30 मिग्रा/किग्रा) की तुलना में जमीन के ऊपरी  भाग (0.28 मिग्रा/किग्रा) में आर्सेनिक की मात्रा मामूली तौर पर कम पाई गई। अध्ययन क्षेत्र में उगाए गए अनाजों में आर्सेनिक अंश का विश्लेषण किया गया था और परिणामों से पता चलता है कि अनाजों में से धान के जमीन से ऊपर और जमीन के निचले भाग में आर्सेनिक का उच्चतम अंश क्रमशः 0.36 और 0.56 मिग्रा/किग्रा) पाया गया। 

कम दबाव वाले स्प्रिंक्‍लर नोजल का डिजाइन और विकास:

क) LEWA एलईडब्‍ल्‍यूए (लो एनर्जी वॉटर एप्लीकेशन) डिवाइस को संचालित करने के इष्टतम दबाव को 0.4 – 0.6 किग्रा/वर्ग सेमी के रेंज में पाया गया। ऑपरेटिंग दबाव के इस रेंज हेतु क्रिस्टियनसन यूनिफॉर्मिटी (सीयू) मान को 55 से 70 प्रतिशत (पंक्ति से पंक्ति और नोजल -6 मीटर) के बीच पाया गया।

ख) संशोधित LEWA डिवाइस का परीक्षण करके पानी व ऊर्जा की बचत के लिए चावल और गेहूं के खेतों में एकल नोजल छिड़काव के साथ इसकी तुलना की गई। यह देखा गया कि चावल की खेती में इसके उपयोग से 50 प्रतिशत से अधिक पानी और 60 प्रतिशत से अधिक ऊर्जा (डीजल) की बचत होती है जबकि गेहूं की खेती में स्प्रिंक्‍लर की तुलना में 15 प्रतिशत पानी की बचत तथा स्प्रिंक्‍लर के साथ-साथ सिंचाई की सतही विधियों की तुलना में 50 प्रतिशत पानी और लगभग 50 प्रतिशत ऊर्जा की बचत हो सकती है।

ग) अलग-अलग मल्टी-आर्म लो स्प्रिंक्लिंग नोजल की तुलना से पता चलता है कि आठ-भुजाओं वाला प्रोटोटाइप सबसे उपयुक्त है और इससे 1.0 किग्रा/वर्ग सेमी से कम दबाव के साथ काफी दूर तक और चारों ओर (रेडियल) जल छिड़काव किया जा सकता है।

घ) एक ऐसे सिंचाई नोजल को विकसित किया गया जो क्रमशः 9.2-11.2 मीटर व्यास (थ्रो रेंज) तक छिड़काव सहित 0.6 से 1.0 किग्रा/वर्ग सेमी के ऑपरेटिंग प्रेशर रेंज, 1.8-2.6 घन मीटर/घंटा की डिस्चार्ज दर, और 2.6 से 2.7 सेमी/घंटा की अनुप्रयोग दर पर संतोषजनक ढंग से काम करता है।

धान- मसूर फसल-क्रम में पोषक तत्व प्रबंधन  :

क) 20 किग्रा/हे. की दर से सल्‍फर के प्रयोग से धान-मसूर फसल प्रणाली में, चावल का अधिकतम उत्पादन 8.60 टन/हे. दर्ज किया गया। जिंक का 6.0 किग्रा/हे. की दर से प्रयोग करने पर चावल की उच्चतम उपज 8.53 टन/हे. दर्ज की गई। सल्‍फर और जिंक का कोई परस्पर प्रभाव (इंटरएक्‍शन इफेक्‍ट) नहीं देखा गया।

ख) धान-मसूर फसल प्रणाली में पोषक तत्वों के प्रबंधन से यह प्रदर्शित होता है कि 40 किलोग्राम सल्फर के प्रयोग से मसूर की 963.8 किग्रा/हे. की अधिकतम दाना उपज प्राप्‍त हुई जबकि चावल में क्रमशः 0 किलोग्राम सल्फर और 6 किलोग्राम जिंक के प्रयोग से न्यूनतम 6080 किग्रा/हे. और अधिकतम 6602 किग्रा/हे. दाना उपज प्राप्त हुई ।

ग) 6 किग्रा की दर से जिंक के अनुप्रयोग द्वारा धान में पौधे की अधिकतम ऊँचाई 129.4 सेमी दर्ज की गई जबकि जबकि न्यूनतम S1 121.5 सेमी पाई गई। जिंक को 6 किग्रा की दर से प्रयुक्‍त करने पर पत्ती क्षेत्र सूचकांक (7.855) अधिकतम पाया गया और न्यूनतम LAI (6.35) में प्राप्त हुआ। प्रति वर्ग मीटर में जिंक को 6 किग्रा की दर से प्रयुक्‍त करने पर अधिकतम पुष्‍पगुच्‍छों (311.4) को पाया गया। जिंक को 6 किग्रा की दर से प्रयुक्‍त करने पर प्रति पुष्‍पगुच्‍छ दानों की संख्‍या को (207.7) दर्ज किया गया। जिंक व सल्‍फर का प्रयोग न करने पर चावल की न्यूनतम उपज 7.09 टन/हे. पाई गई जबकि 30 किग्रा सल्फर और 6 किग्रा जिंक के संयुक्त प्रयोग से चावल की अधिकतम उपज (7.72 टन/हे.) दर्ज की गई। मसूर की फसल में 5 किग्रा जिंक और फसल कटाई के समय 0 किग्रा जिंक के उपयोग से पौधों की अधिकतम और न्यूनतम ऊंचाई क्रमश: 33.8 सेमी और 26.98 सेमी दर्ज की गई। 40 किलोग्राम सल्फर के प्रयोग से प्रति पौधे फलियों की संख्‍या को अधिकतम 51.7 दर्ज किया गया जबकि बिना सल्‍फर के फली/पौध को न्यूनतम (38.9) पाया गया। S4Zn4 उपचार संयोजन (40 किग्रा सल्फर और 5 किग्रा जिंक) के प्रयोग से 1097.5 किग्रा/हे. मसूर की उपज (दाना) पाई गई। S1Zn1 उपचार संयोजन से मसूर की न्यूनतम बीज उपज (743 .4 किग्रा/हे.) पाई गई।

जल बचत प्रौद्योगिकी – एफपीएआरपी परियोजना किसान भागीदारी कार्रवाई अनुसंधान कार्यक्रम: जल संचयन प्रौद्योगिकी के प्रदर्शन के लिए किसान भागीदारी कार्रवाई अनुसंधान कार्यक्रम के तहत, पूर्वी पठार क्षेत्र के ऊपरी भागों में बागवानी की स्थापना के लिए 46 किसानों के खेतों में प्रत्यक्ष वर्षा संग्रह डोबा (छोटे जल भंडारण टैंक) पर प्रदर्शन दिया गया। सोन कमान क्षेत्र में पटना मुख्य नहर के अंतर्गत अमरपुरा और निसरपुरा गांव की 28.5 एकड़ भूमि में 51 किसानों को 06 जल बचत प्रौद्योगिकियों का प्रदर्शन किया गया।

लाभकारी एकीकृत खेती के चयन हेतु किसान परिवार के निर्णय समर्थन टूल का विकास : तीन निष्‍पादन संकेतकों अर्थात लाभ-लागत अनुपात, भूमि उत्पादकता तथा जल उत्‍पादकता को ध्यान में रखते हुए एकीकृत कृषि प्रणाली घटकों के चयन में किसानों को सुविधा प्रदान करने के लिए एक सक्षम निर्णय समर्थन टूल (डीएसटी) को विकसित किया गया है।

एफपीएआरपी के तहत जल बचत प्रौद्योगिकी: किसानों की सहभागिता से संचालित अनुसंधान कार्यक्रम के तहत चार जल बचत प्रौद्योगिकियों का संचालन किया गया जिसमें (ए) कैनाल कमांड में संयुक्‍त उपयोग को बढ़ावा देने के लिए सॉफ्टवेयर प्रदर्शन, (बी) गेहूं में शून्य जुताई और मसूर में सतही बिजाई (सी) पोषक तत्वों का संतुलित उपयोग, (डी) कम ऊर्जा जल अनुप्रयोग शामिल है।

दक्षिण बिहार के विभिन्न कृषि – पारिस्थितिकी तंत्र में मिट्टी की गुणवत्ता का आकलन:

ए) दक्षिण बिहार (कृषि-पारिस्थितिक क्षेत्र नंबर 9) में मिट्टी की गुणवत्ता और भूमि उपयोग का आकलन दर्शाता है कि यहां छह प्रमुख भूमि उपयोग प्रणालियां (चावल-गेहूं, मक्का-आलू, अरहर, गन्ना, आम के बाग और कृषि-वानिकी) प्रचलित हैं। चावल-गेहूं प्रणाली में मृदा का उच्च संघनन देखा गया। आम के बाग की मिट्टी में सर्वाधिक जैविक कार्बन स्टॉक होता है और उसके बाद इसे कृषि वानिकी में पाया गया, जबकि गन्ना उगाने वाली मृदा में सबसे कम कार्बन स्टॉक को पाया गया।

बी) मृदा की चार श्रेणियों के लिए सर्वोत्‍तम, अच्छा, मध्यम और खराब मृदाओं के सापेक्षिक मृदा गुणवत्ता सूचकांक को स्थापित किया गया। इन चार वर्गों को 0 से 100 तक की स्कोरिंग प्रदान की गई जिसमें सर्वश्रेष्ठ वर्ग को  80-100, अच्‍छी मृदा को 60-80, मध्‍यम श्रेणी को 40-60 तथा खराब मृदा को <40 से कम स्‍कोर प्रदान किया गया। तदनुसार, आम के बागानों को 81 का उच्चतम स्कोर के साथ सर्वोत्‍तम भूमि उपयोग पाया गया जिसने उत्‍कृष्‍ट मृदा गुणवत्‍ता को बनाए रखा और उसके बाद चावल-गेहूं-परती (72), कृषिवानिकी (68) और गन्ना (63) को अच्छी श्रेणी में पाया गया। मक्का-आलू-परती (59) और अरहर (53) में मृदा गुणवत्ता को मध्यम श्रेणी में पाया गया। बहु उपयोग प्रणाली के तहत मिट्टी की उर्वरता और पानी की गुणवत्ता का लक्षण वर्णन: पानी के बहु-उपयोग के तहत पानी की अस्थायी गुणवत्ता के आकलन में ऑक्सीजन संतृप्ति और तापमान के बीच विपरीत संबंध का संकेत मिलता है। सभी जल निकायों में क्रमशः नाइट्रेट, फॉस्फेट और पोटाशियम पोषक तत्व मौसम के अंत में  समाप्ति की ओर रहते हैं।

भिंडी – आलू – मेंथा प्रणाली में ड्रिप सिंचाई प्रकियाओं का विकास: मेंथा समतुल्य पैदावार के मामले में मेंथा- भिंडी-आलू की प्रणाली की उत्पादकता 100% पीई में ड्रिप सिंचाई करने पर अन्य उपचारों की तुलना में सर्वाधिक पाई गई जो 6 सेमी गहराई पर सतही सिंचाई देने पर 25 % तक अधिक थी।

मधुमक्खियों (एपिस मेलिफेरा) की पोषण संबंधी जरूरतों को पूरा करने के लिए पराग प्रतिस्‍थापकों का निरूपण  विकास और मूल्यांकन:

क) स्थानीय उपलब्ध खाद्य सामग्री (गेहूं, चना, सोया, मखाना और आलू के आटे) से बने पराग स्थानापन्न के विभिन्न संयोजनों में तैयार पांच उपचारों को मधुमक्खियों (एपिस मेलिफ़ेरा) के कृत्रिम आहार के रूप में आज़माया गया। अन्य संयोजनों की अपेक्षा सोया आटा से तैयार आहार को सर्वाधिक पसंद किया गया। प्रत्येक 8 फ्रेम वाले 4 मधुमक्खियों के बक्से सहित एक छोटी प्रयोगात्मक मधुमक्खी पालन इकाई को संस्‍थान परिसर में स्थापित किया गया। स्वस्थ रानी मधुमक्खी के साथ मधुमक्खी कॉलोनी और कामगार मधुमक्खियों का समावेश कर उन्‍हें पर्यानुकूलित होने दिया गया। मधुमक्खी (एपिस मेलिफेरा) के कृत्रिम आहार की उपयुक्तता का आकलन करने हेतु गैर-उपचार (कंट्रोल) (केवल चीनी सिरप) सहित चार उपचारों को आजमाया गया था। वसारहित (फैटलेस) सोयाबीन आटा, चने का आटा, ज्‍वार का आटा, मखाना का आटा, आलू के आटे को स्किम्ड मिल्क पाउडर, वसा रहित दूध, शुष्‍क यीस्‍ट, शहद और चीनी के साथ मिलाकर पराग के स्‍थानापन्‍न को तैयार कर विभिन्‍न अनुपात में आहार के रूप में दिया गया। सितंबर और अक्टूबर महीने में पराग की कमी होती है। मधुमक्खियों ने अन्‍य संयोजनों की अपेक्षा सोया बियर आटे को पसंद किया। गुड़ (जैगरी) मधुमक्खियों का सबसे पसंदीदा नेक्टर स्‍थानापन्‍न है। सोयाबीन के आटे – चीनी का आहार लेने वाली कालोनियों में बेहतर ब्रूड विकास की सूचना मिली थी। दिसंबर 2009 और जनवरी 2010 की भीषण सर्दी, मधुमक्खियों के जीवित रहने के की दृष्टि से चिंताजनक थी,  लगातार कम तापमान के कारण 30% से अधिक मधुमक्ख्यिां नष्‍ट हो गईं।

बी) साप्ताहिक अंतराल पर मधुमक्खियों को पांच नए आहार उपचार 100 ग्राम प्रत्येक दिया गया। ब्रूड क्षेत्र, पराग भंडार, मधु भंडार और मधुमक्खियों की संख्‍या को दर्ज करने के लिए प्रेक्षण लिए गए। प्रेक्षणों से पता चलता है कि मधुमक्खियों के लिए सबसे पसंदीदा नेक्‍टर विकल्प गुड़ को पाया गया। पराग स्‍थानापन्‍नों के निरूपण, विकास और आकलन हेतु 8 फ्रेम वाले मधुमक्खियों के 4 बक्‍सों सहित एक छोटी प्रयोगात्मक मधुमक्खी पालन इकाई का संस्‍थान परिसर में लगातार परीक्षण किया गया ताकि मधुमक्‍खी (एपिस मेलिफ़ेरा) की पोषण संबंधी आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके।

बिहार के मुजफ्फरपुर और शिवोहर जिले के लवणता प्रभावित जल क्षेत्रों में आजीविका सुरक्षा में सुधार:

ए) बिहार के मुजफ्फरपुर और शिवोहर जिलों के सामाजिक-आर्थिक और जैव-भौतिक सर्वेक्षण से पता चला कि इन क्षेत्रों में चावल की खेती करने वाले छोटे और सीमांत किसानों की बहुलता है, और यहां का 25-50 प्रतिशत क्षेत्र लवणता से प्रभावित है।

बी) मुजफ्फरपुर और शिवोहर जिले गन्ना और गेहूं के प्रमुख उत्पादक जिले हैं। अध्ययन क्षेत्र में भूमि क्षरण की समस्याएं जैसे लवणता/क्षारीयता ने फसलों की उत्पादकता को कम कर दिया है। अध्ययन के लिए मोतीपुर ब्लॉक के बबुरबन और मथिना ग्राम समूहों और कांति ब्‍लॉक के बहुरा और बिमलपुर ग्राम समूहों का चयन किया गया था। लवणता को 5.5 dSm–1 और मृदा पीएच 9.5 से अधिक तथा क्षारीयता को ईएसपी के 35 तक दर्ज किया गया। इसलिए, किसानों ने प्रभावित क्षेत्रों में कम पैदावार (25 से 30 टन/हे.) के कारण गन्ने की खेती छोड़ दी। उपज की भारी हानि के कारण लवणता प्रभावित इन क्षेत्रों में सरसों और सब्जियों के तहत खेती का रकबा कम हो गया। वर्तमान में, लवणता से प्रभावित भूमि में धान की खेती की जा रही है। क्षारीयता के कारण इस मिट्टी में गेहूँ की खेती लाभप्रद न होने के कारण धीरे-धीरे कम होती जा रही है। इस मिट्टी में उगाई गई गेहूं की फसल के पत्‍ते पीले, मुड़े हुए तथा पूरे खेत में उनकी वृद्धि को असमान पाया गया।

शिक्षण एवं प्रदर्शनों द्वारा आजीविका हेतु कृषि की जल उत्पादकता में वृद्धि: सब्जी-आधारित फसल प्रणाली में ड्रिप सिंचाई के उपयोग से भिंडी, फूलगोभी और मिर्च में क्रमशः 5.0, 10.0 और 8 टन/ हे. की उपज दर्ज की गई जो सतही सिंचाई की तुलना में 40, 32 और 28% अधिक थी। जल उपयोग दक्षता को क्रमश: 32, 22 और 27 किग्रा/हे./मिमी दर्ज किया गया, जबकि ड्रिप सिंचाई प्रणाली के तहत पानी की उत्पादकता को भिंडी, फूलगोभी और मिर्च में क्रमश: रु. 16, 22 और 108 /घन मीटर दर्ज किया गया।

फाबा बीन का मूल्‍यांकन (विसिया फाबा एल) :

क) फाबा बीन (विसिया फाबा एल.) एक वार्षिक फली है जिसे अनेक प्रकार की कृषि-जलवायु स्थितियों में व्‍यापक रूप से उगाया जाता है, यह विशेष रूप से उत्तरी बिहार की मुख्य रबी दाल/फली है। फाबा बीन को एकल फसल और साथ ही विभिन्न फसल-संयोजनों के साथ अंत: फसल/मिश्रित फसलों के रूप में भी उगाया जाता है। फ़ाबा फसल सुधार कार्यक्रम शुरू करने के लिए, इसके बीज के बहुगुणन और उत्‍तरी बिहार के समस्तीपुर, मुज़फ़्फ़रपुर, वैशाली और सीतामढी जिलों से एकत्र 71 एक्‍सेसनों (प्राप्तियों) के प्राथमिक लक्षणवर्णन और मूल्‍यांकन के लिए 2008-09 में गमलों में और 2009-10 में खेतों में अन्‍वेषणात्‍मक परीक्षण किए गए।

बी) आकड़ों के अध्‍य्यन से इस बात की पुष्टि होती है कि 50% अंकुरण के पूरा होने में लगने वाला अधिकतम व न्यूनतम समय क्रमशः 12.5 और 9.6 दिन था, और इसका औसत 11.1 दिन पाया गया। 50% अंकुरण अवस्था में भिन्नता देखी गई। इस लक्षण पर दर्ज आंकड़ों में व्‍यापक विविधता देखी गई जिसका रेंज न्यूनतम (10.4) से लेकर अधिकतम (88.4) तक तथा औसत 67.9 था। पौधे की ऊँचाई के रेंज को 63.4 से 93.3 सेंमी के बीच पाया गया तथा इसका औसत 78.4 था। फाबा बीन में पहले पुष्‍पन (एंथेसिस) में लगने वाले दिनों को दर्ज किया गया। आंकड़ों के अवलोकन से पता चला है कि फूल आने में लगने वाले दिनों की न्यूनतम संख्या 39.8 थी जबकि 58.9 औसत के साथ पुष्‍पन में लगने वाले अधिकतम दिनों की संख्‍या 70.3 दिन थी। एक एक्‍सेसन (बीपी-14) में चार फलियां पाई गईं जो एक विशिष्‍ट लक्षण था। आम तौर पर फाबा बीन में एक से दो फलियां पाई जाती हैं। इसी तरह, बीपी -23 में फली का निर्माण कॉलर क्षेत्र के पास हुआ, जबकि बाकी में फली का निर्माण जमीन सतह से 5-10 सेमी ऊपर देखा गया।

बिहार में जल उपयोगकर्ता संघ के कार्य निष्‍पादन क्षमता का मूल्यांकन:

कुछ संकेतकों के आधार पर जल उपयोगकर्ता संघों के कार्य निष्‍पादन का अध्ययन और मूल्यांकन किया गया। ये संकेतक, सिंचाई प्रणाली और इससे संबद्ध सभी हितधारकों की सफलता या विफलता के कारणों को इंगित करने में सहायक हैं। तुलनात्मक अध्ययन में नहर के पानी को छोड़ने (रिलीज), आवंटन, वितरण और उपयोग में सुधार की गुंजाइश के साथ-साथ इसमें हुई महत्वपूर्ण प्रगति को दर्शाया गया है।

चावल की खेती के लिए 3 साल में एक बार गहरी ग्रीष्‍मकालीन जुताई (डीएसपी) को गैर-डीएसपी की तुलना में उल्‍लेखनीय उपज के साथ सर्वाधिक उत्पादक पाया गया और इसके बाद 4 साल में एक बार ग्रीष्‍मकालीन जुताई करने (डीएसपी) को इसके काफी करीब पाया गया। गेहूं की खेती में सभी डीएसपी उपचारों को गैर- डीएसपी की अपेक्षा उपज (दाने) के मामले में उत्‍कृष्‍ट पाया गया। डीएसपी अपनाने पर प्रत्‍येक वर्ष सर्वाधिक अनाज की पैदावार प्राप्‍त हुई। पारंपरिक जुताई की तुलना में जीरो टिलेज (जेडटी) को अपनाने पर गेहूं में बेहतर उपज प्राप्‍त हुई।

खरीफ में धान की पडल्‍ड रोपाई और रबी के दौरान गेहूं की शून्‍य जुताई, तथा 3 साल में एक बार गहरी ग्रीष्‍मकालीन जुताई (डीएसपी) के संयोजन को मृदा स्वास्थ्य और उच्च उपज को लगातार बनाए रखने हेतु सर्वोत्‍तम पाया गया है।

सूखाग्रस्‍त दशाओं में चावल की सत्रह उच्‍च उपजशील किस्‍मों (HYVs) को उगाया गया और उनके भौतिक विशेषताओं की पहचान के लिए फसल वृद्धि और गैस विनिमय लक्षणों का विश्लेषण किया गया। प्रकाश संश्लेषण दर, पत्ती क्षेत्र और दानों के भार में पुष्‍पगुच्‍छ निकलने के दौरान सूखे के कारण अधिक कमी आई तथा दबाव प्रवर्तन पर प्रोलीन अंश को अधिक पाया गया। सहिष्णु किस्मों में टीएसएस और स्टार्च को अधिक पाया गया तथा दानों के भार में अपेक्षाकृत कम कमी पाई गई।

जलमग्नता की दशाओं में चावल की चार किस्‍मों को उगाया गया और जलमग्‍नता के दौरान उनकी बढ़वार और दैहिक लक्षणों पर एंटी जीए के प्रभाव का विश्‍लेषण किया गया। PSII की उपज में कम गिरावट के साथ उच्च प्रकाश संश्लेषण दर, इलेक्ट्रॉन हस्तांतरण दर और एंटी-जीए के अनुप्रयोग के साथ फोटोकैमिकल शमन के कारण चावल में जलमग्नता के प्रति सहिष्णुता में वृद्धि हुई तथा उपज को बरकरार रखा जा सका। यह भी पाया गया कि जलमग्‍नता दबाव के बाद पुनर्प्राप्ति प्रक्रिया में तने में आरक्षित प्रोलीन, टीएसएस और स्टार्च महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।

कृत्रिम परिस्थितियों और खेतों में पौद की स्थापन अवस्‍था के दौरान 15 दिनों तक आरोपित जलमग्नता तनाव की दशाओं में चावल के जीनरूपों (जीनोटाइप) की जांच की गई। चावल की FR13A और IR64 किस्‍मों के बीच संकरण कराया गया और F1 बीजों को एकत्रित किया गया। आणविक मार्कर (एसएसआर) का उपयोग करके इनके जनकों तथा एफ1 का आणविक निरूपण किया गया।

वानस्‍पतिक और प्रजनन अवस्‍था में क्रमशः 13 व 17 दिनों तक आरोपित सूखे के प्रति चावल के जननद्रव्‍य (जर्मप्लाज्म) की जांच की गई। पैरेंट (जनकों) अर्थात IR55419-04 और IR64 को फिर से उगाया गया, युग्‍म क्रॉसिंग करवाई गई और एफ1 बीज एकत्र किए गए। माइक्रोसेटेलाइट (एसएसआर) मार्करों की सहायता से जनकों (पैरेंट) और एफ1 की आणविक रूपरेखा को जानने का प्रयास किया गया। 

CSISA प्लेटफ़ॉर्म अनुसंधान के तहत, विभिन्न सीए प्रक्रियाओं के साथ फसल लेने के चार परिदृश्यों (सामान्य प्रक्रियाएं, बढ़ती हुई भोजन मांग, घटते प्राकृतिक संसाधनों, ऊर्जा और श्रम की कमी और खाद्य व पोषण सुरक्षा, गहनता और विविधता, कृषि लाभप्रदता) को बड़े आकार के भूखंड (1,900 वर्ग मीटर प्रत्येक) पर संचालित किया गया। चावल-गेहूँ-लोबिया फसलक्रम अपनाया गया। शून्‍य जुताई के तहत चावल को अपशिष्‍ट सहित सर्वोत्तम उत्पादक और लाभदायक प्रणाली के रूप में पाया गया है।

पूर्वी क्षेत्र के छोटे और सीमांत किसानों के लिए दो आईएफएस मॉडल ए) 1 एकड़ – सिंचित ऊपरिभूमि के लिए और बी) 2 एकड़ – सिंचित तराई और ऊपरिभूमि के लिए  विकसित किए गए हैं। 1 एकड़ वाले आईएफएस मॉडल के तहत फसल/बागवानी/बकरी/मुर्गी/मशरूम/वर्मीकम्पोस्ट जैसे आईएफएस मॉडल उद्यमों को एक साथ अपनाया गया है, जिसके फलस्वरूप 1,35,418/वर्ष रुपये की कुल शुद्ध आय प्राप्‍त हुई । इसके अलावा, प्रतिवर्ष 1.5 टन वर्मीकंपोस्ट और 3.2 टन बकरी की खाद भी पैदा हुई जिसका इस प्रणाली में पुन: उपयोग (रिसाइकल) किया गया।

दो एकड़ की समेकित खेती प्रणाली (IFS) मॉडल के तहत फसल/बागवानी/मवेशी(3)/मछली पालन/बत्‍तख पालन/वर्मीकंपोस्‍ट जैसे उद्यमों को एकीकृत किया गया है, जिसके परिणामस्वरूप रु. 1,80,805/वर्ष की    शुद्ध आय प्राप्‍त हुई । इसके अलावा 2.2 टन वर्मी कंपोस्‍ट और 22 टन गोबर की खाद (FYM)/वर्ष भी पैदा हुई जिसका प्रणाली में पुन: उपयोग (रिसाइकल) किया गया।  

पारंपरिक तरीके से खेती करने की तुलना में एक एकड़ और दो एकड़ के IFS मॉडल अपनाने पर आय में 2.5 गुना वृद्धि हुई है। बिहार सरकार द्वारा इस प्रौद्योगिकी को स्वीकार कर लिया गया है और बिहार के 534 ब्लॉकों को आईएफएस मॉड्यूल विकसित करने के लिए चुना गया है और फसल के साथ न्‍यूनतम एक उद्यम अपनाने पर सरकार 10,000 /- रुपये की सब्सिडी दे रही है।

पूर्वी भारत में चावल की कटाई में देरी (नवंबर-दिसंबर) होने से मक्का की बुवाई में होने वाली देरी के कारण शीतकालीन मक्‍के की कम उपज की समस्‍या का समाधान मक्‍के की पौद की रोपाई के कारण संभव हो गया है। बालू कल्चर और उठी क्‍यारी विधि से उगाई गई 5 सप्‍ताह की पौद (सीडलिंग) को मुख्य खेत में प्रत्यारोपित किया गया था, जिससे रबी मौसम के दौरान क्रमश: 66.59 और 63.89 क्वि./हे. की पैदावार हुई थी, जो कि सीधे बोए गए मक्का (मध्य अक्टूबर) से प्राप्‍त उपज के बराबर थी अर्थात उपज को कोई नुकसान नहीं पहुंचा। मक्का की रोपाई करने से फसल की अवधि को 20-25 दिनों तक कम करके 1 सिंचाई की भी बचत की जा सकती है। 

चावल-गेहूं फसल प्रणाली में एफवाईएम तथा जीएम अनुप्रयोग द्वारा निर्मित एसएमबीसी को उल्‍लेखनीय पाया गया। 40 दिन बाद सेस्‍बानिया की हरी खाद को मिलाने तथा उसके पश्‍चात 20 टन/हे. की दर से गोबर की खाद देने पर चावल की सर्वाधिक उपज 7.48 टन/हे0 तक दर्ज की गई। इसके तुरंत बाद ली जाने वाली गेहूं के  फसल काल में 20 टन/हे. की दर से गोबर की खाद देने पर सूक्ष्‍मजैविक (माइक्रोबियल) मॉस C में अधिकतम वृद्धि पाई गई। ग्रीष्‍म परती के दौरान सूक्ष्‍मजैविक (माइक्रोबियल) मॉस C में अधिकतम वृद्धि कंट्रोल की तुलना में 20 टन/हे. की दर से गोबर की खाद देने पर पाई गई। फसलीय मौसम के औसत के रूप में, सभी उपचारों में धान बुवाई से लेकर ग्रीष्‍मकालीन परती से लेकर गेहूं बोने की अवधि तक सिर्फ सेस्‍बानिया उपचार को छोड़कर सूक्ष्‍मजैविक (माइक्रोबियल) मॉस C में वृद्धि पाई गई जबकि सेस्‍बानिया उपचार में गेहूं बोने की अवधि में माइक्रोबियल मॉस C में हल्‍की कमी पाई गई। बोरान के अनुप्रयोग से बरसीम में बीजों के गठन में वृद्धि पाई गई।

गमलों में किए गए परीक्षणों में 1.7 पीपीएम की दर से बोरॉन को देने पर जड़ों की प्रचुर मात्रा, ओजपूर्ण फसल, बेहतर पुष्‍पन और बीजों का गठन होता है। बिहार के पटना जिले के चावल-गेहूं फसल प्रणाली में कीटों के सर्वेक्षण और निगरानी हेतु किए गए अध्ययन से पता चलता है कि उच्च तापमान और कम आर्द्रता के कारण कीटों की कम संख्‍या पैदा हुई जिसने वर्ष 2009 और 2010 में हॉपरों के प्रजनन को बाधित किया। हालांकि, 2008 में ग्रीन लीफ हॉपर की संख्‍या के घनत्व को फसल की मिल्‍की स्‍टेज में 1.7 हॉपर/हिल दर्ज किया गया था। ब्राउन प्लांट हॉपर की संख्‍या को पुष्‍पन तथा मिल्‍की स्‍टेज में 2.5 और 4.6/हिल पाया गया था। आईसीएआर फार्म और सब्‍जपुरा फार्म में वर्ष 2008 और 2010 के दौरान फसल की बालियों को काटने वाले इयर कटिंग कैटरपिलर (मिथिम्ना सेपराटा) का भारी संक्रमण देखा गया जो 40-60% के बीच था। गुजिया वीविल (टेनमेकस इंडिकस) को 2009 और 2010 में नर्सरी स्टेज पर देखा गया था। वर्ष 2009 और 2010 में BPT- 5204 में दीमक (ओडोंटोटर्मिस प्रजाति) का संक्रमण देखा गया था। स्थानीय परिस्थितियों में धान के हॉपर कीट व नाशीजीवों के लिए आईपीएम प्रथाओं का मूल्यांकन किया गया और यह देखा गया 15 दिनों के अंतराल पर नीम के तेल और ब्‍यूवेरिया के दो लगातार छिड़काव द्वारा ग्रीन लीफ हॉपर और ब्राउन प्‍लांट हॉपर की संख्‍या को उनके नुकसान पहुंचाने से पहले ही कम किया जा सकता है। इमिडाक्लोप्रिड कीटनाशक के एकल स्प्रे ने भी हॉपर की संख्‍या को प्रभावी ढंग से रोकने में सफलता मिली।

कृंतकों की छह प्रजातियां – लैसर बैंडिकूट, बेंडीकोटा बेंगालेंसिस, फील्ड माउस, मुस बूडुगा, मुलायम फर वाला चूहा, मिलार्डिया मेल्टाडा पल्लीडियोर, साधारण चूहा, रैटस रटस, पांच स्ट्रिप वाली गिलहरी, फनंबुलस पेन्‍नान्‍टी, और सफेद पेट वाला चूहा, रैटस निविवेंटर को अलग-अलग फसल प्रणालियों में पाया गया। बैंडिकूट चूहे को प्रमुख प्रजाति (67.5%) पाया गया और इसके बाद मुस बूडुगा (23.5%) और मिलार्डिया मेल्टाडा (9.0%) को पाया गया। बैंडिकूट चूहे ने फसल की परिपक्वता अवस्था में धान की फसल को अधिक नुकसान (14.73%) जबकि वानस्‍पतिक अवस्था में मध्यम (3.86%) नुकसान पहुंचाया। गेहूं में, अधिकतम टिलर क्षति मिल्‍की और डॅफ अवस्‍था (16.69%) में दर्ज की गई, उसके बाद परिपक्वता (15.0%) और वानस्‍पतिक अवस्‍था (11.0%) में पाई गई। बी. बेंगालेंसिस की रोकथाम हेतु एल्यूमीनियम फॉस्फाइड की प्रभावकारिता को सर्वाधिक (87.7% मृत्यु दर) पाया गया जबकि इसके पश्‍चात जिंक फास्फाइड (42.8%) और ब्रोमैडिओलोन (7.14%) को पाया गया। चरम घटनाओं के विश्लेषण से संकेत मिलता है कि बिहार के विभिन्न हिस्सों में सर्दियों के मौसम में बारिश के दिनों में वृद्धि हुई है।

मानसून के दौरान अत्यधिक वर्षा सूचकांकों और उत्पादकता विसंगति सूचकांक के बीच सहसंबंध से यह संकेत मिलता है कि लगभग सभी चरम वर्षा सूचकांक, चावल उत्पादकता में सकारात्मक योगदान करते हैं। अगस्त और सितंबर में अधिकतम तापमान में वृद्धि ने फसल अवधि में कमी लाकर चावल की फसल को प्रतिकूल रूप से प्रभावित किया और इससे विशेष तौर पर वर्षाश्रित चावल के दानों के आकार में कमी पाई गई। ओटीसी प्रयोग के तहत, CO2 के स्‍तर में 25% की वृद्धि से चावल और गेहूं की फसल अवधि में वृद्धि हुई और साथ ही उपज में 15% से 18% तक की वृद्धि हुई। तापमान में 10C की वृद्धि से सामान्य स्थिति की तुलना में पैदावार में कमी होती है। CO2 में 25% वृद्धि से एमटीयू 7029 से अधिक उपज की प्राप्ति हुई। विभिन्न ओटीसी उपचारों और खेतों में राजेंद्र भगवती और एमटीयू 7029 में उपज में कम परिवर्तनशीलता देखी गई है। नियंत्रित ओटीसी के तहत स्वर्ण सब 1 और एमटीयू 7029 ने कुल मिलाकर अधिक समय लिया जबकि राजश्री और राजेंद्र भगवती CO2 में 25% वृद्धि और 10C उच्च तापमान की दशा में अधिक समय लिया।गेहूं की विविध किस्‍मों की तुलना में पाया गया कि मुक्‍त खेतों की तुलना में ओटीसी में किस्‍में तीन दिन पहले ही परिपक्व हो जाती हैं। सतत आजीविका विकास (रोजीरोटी) को बढ़ाना- (www.rojiroti.org), अनुसंधान से उपयोग कार्यक्रम में वित्त पोषित एक परियोजना, डीएफआईडी की एक प्रमुख पहल को तीन राज्यों बिहार, म.प्र. और पूर्वी उत्‍तर प्रदेश के 11 जिलों में संचालित किया गया। कुल 4562 एसएचजी (स्‍वयं सहायता समूहों) का गठन किया गया है जो उक्‍त तीन राज्यों में 2,300 गांवों और 50,880 लाभार्थियों को कवर करते हैं। यह परियोजना बिहार में विशेष रूप से पटना, नालंदा और नवादा जिले को प्रमुख तौर पर सम्मिलित करती है। रोजीरोटी स्‍वयं सहायता समूह (एसएचजी) के 95% से अधिक सदस्य महिलाएं, 76% बीपीएल और 92% वंचित समूहों के सदस्य हैं।

आईसीएआर-आरसीईआर, पटना ने वैकल्पिक संस्थागत व्यवस्था के रूप में सटीक सूचना (क्‍वालिटी इंफारमेशन) और इनपुट डिलीवरी के लिए केएसके और इसकी नेटवर्किंग इकाइयों ग्राम सूचना केंद्र के माध्यम से केएसके (किसान सुरक्षा केंद्र) का परीक्षण किया है। किसान सूचना केंद्र, परिनगरीय क्षेत्रों में स्थित होगें जबकि वीएसके गांवों में स्थित होंगे। किसान सूचना केंद्र (केएसके), ग्राम सूचना केंद्र (वीएसके) के माध्यम से अंतिम प्रयोक्‍ता तक सूचना पहुंचाने का स्रोत होगा और कृषि आदानों आदि के बारे में गुणवत्तायुक्‍त आउटलेट भी होगा। राष्ट्रीय/राज्य/जिला/ब्लॉक स्तर के केंद्रों (हब) द्वारा केएसके को जानकारी उपलब्ध कराई जाएगी। सभी कृषि सूचना केंद्रों (केएसके) को एक-दूसरे के साथ जोड़ा जा सकता है जबकि अन्य केएसके द्वारा वीएसके तक पहुंच संबंधित केएसके के माध्यम से प्रदान की जा सकती है। जल के बहु उपयोग (मछली और बत्‍तख घटक) द्वारा भूमि और जल की उत्पादकता बढ़ाने की रणनीतियाँ: चार अलग-अलग प्रणालियाँ अर्थात् i) बतख – मछली पालन, ii) चावल / गेहूं – मछली पालन, iii) जलाशय में मछली पालन और iv) भूमि और जल की उत्पादकता बढ़ाने के लिए खाइयों में मछली पालन को बढ़ावा दिया गया। 0.3 – 1.0 मीटर तक जल ठहराव वाले जलमग्‍न क्षेत्रों का उपयोग उस भूभाग की खाइयों के रूप में खुदाई करके प्रभावी मछली पालन और खोदी गई मिट्टी का उपयोग बाढ़ के उच्‍चतम स्‍तर पर सब्जी या बागवानी फसलों की खेती करके बढ़ाया गया। दो प्रकार की मछली पालन खाइयाँ, 1) नदी के अनुरूप खाई और 2) द्वीप प्रकार के तालाबों को बनाया गया।

मछली के बच्‍चों (फ्राई) को 15,000/हे. की दर से संग्रहित करके मछली की उपज को 1.97 टन/हे. तक बढ़ाया गया। जलाशय में, बत्तख पालन के साथ मिश्रित मछली पालन करने पर 5 – 6 टन/ हे. मछली की उपज प्राप्‍त हुई। जल क्षेत्र में प्रति हेक्टेयर 300 की दर से खाकी कैंपबेल बतख का संग्रह किया गया था। बतख पालन के साथ मछली पालन को भी अपनाने पर लाभकारी पाया गया क्योंकि दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। प्रति हेक्‍टेयर जल क्षेत्र से प्रति वर्ष 43,000 अंडे प्राप्त किए गए तथा खाद के रूप में 24,000 किलो बत्तख की ताजी विष्‍टा मिली जिसका खाद के रूप में तालाब में उपयोग किया गया। बत्तख पालन से आहार और खाद की लागत 25% तक कम हुई जबकि तालाब में चारा उगाने से बतख के आहार लागत में 20% तक की कमी आई।

झींगा को अकेले और मिश्रित तौर पर पालना (मोनोकल्चर और पॉलीकल्चर): जल के बहुउपयोग प्रणाली के अंतर्गत तालाबों में मत्‍स्‍य खाइयां के साथ-साथ उठी क्‍यारियां भी तैयार की गईं। एकल पालन (मोनोकल्चर) में झींगा की प्राप्ति  610 किग्रा/हे. और उनके जीवित रहने की दर 50% थी। मिश्रितपालन (पॉलीकल्चर) में 69% उत्‍तरजीविता दर के साथ झींगे की प्राप्ति 730 किग्रा/हे. थी, साथ ही 3321 किग्रा/हे. मछलियां भी प्राप्‍त की गईं। तालाबों में पीएल-20 की 4-20/वर्ग मीटर में स्‍टॉकिंग को शामिल करते हुए अर्ध-गहन प्रणालियों में झींगा पालन किया गया। स्‍केंपी (एम. रोसेनबर्गी ) के एकल पालन तथा मिश्रित पालन पर किए गए इस अनुकूली अनुसंधान के परिणामस्‍वरूप अब दिसंबर के बाद भी इन्‍हें पालने का मार्ग प्रशस्त हुआ है। बिहार के मौसमी जलभराव वाले क्षेत्रों में किसानों और उद्यमियों को स्‍केंपी पालन के नए एप्रोच से अत्यधिक लाभ होगा। 

जैविक खेती के तहत कार्प मछलियों का मिश्रित पालन (पॉलीकल्चर): इस प्रयोग को कैटला, सिल्वर कार्प, ग्रास कार्प, मृगल, कॉमन कार्प और रोहू के 2-5 सेमी आकार के फ्राइज़ को 20,000/हे. में 1.5: 1.5: 2.0: 2.0: 1.5: 1.5 के अनुपात में स्‍टॉकिंग द्वारा पाला गया। इनके वृद्धि अध्ययनों से पता चलता है कि सिल्वर कार्प (हाइपोथैल्मिक्‍थस मोलिट्रिक्स), ग्रास कार्प (टियोफेरिंगोडॉन आइडिल्‍ला), कटला (कैटला कैटला), कॉमन कार्प (साइप्रिनस कार्पियो किस्‍म स्पेक्युलैरिस), रोहू (लेबियो रोहिता) और मृगल (सिरहिनस मृगला) ने 900 ग्राम, 850 ग्राम, 450 ग्राम, 750 ग्राम, 400 ग्राम, 750 ग्राम प्रति वर्ष का औसत वजन प्राप्‍त किया और 3263 किग्रा/ हे./ वर्ष का उत्पादन दिया।

मखाना के तालाबों से अधिकतम उत्पादकता प्राप्‍त करना: मखाना आधारित जल निकायों की उत्पादकता को एकीकृत जलजीव पालन द्वारा अधिकतम किया जा सकता है, जहाँ जल निकायों के 10% निवल क्षेत्र को शामिल करते हुए 2 से 4 क्विं./हे. तक मछली पालन की संभावना हो सकती है।  

मेजर कार्प के जीरे (सीड) का उत्पादन: किसानों के समक्ष उपस्थित बाधाओं को ध्यान में रखते हुए मछली के बीज को उगाने के लिए मेजर कार्प का सफलतापूर्वक प्रजनन किया गया।

जयंती रोहू पालन: तालाबों में मिश्रित प्रणालियों के तहत जयंती रोहू (एल. जयंती ) के पालन पर किए गए प्रयोगों में रोहू (एल. रोहिता) की तुलना में इन प्रजातियों ने अधिक वृद्धि को दर्शाया है।

छोटे जोत धारकों की आजीविका हेतु बहु उपयोग द्वारा जल की उत्‍पादकता को बढ़ाना (एफपीएआरपी) निम्नलिखित तकनीकों का प्रदर्शन किया गया : I. पिंजरों में मछली पालन II. पेन कल्‍चर और खंदकों द्वारा निचली भूमि में मछली पालन III. मौसमी जलभराव वाले क्षेत्रों में चावल – मछली पालन IV. बहु-स्तरीय मछली तालाब प्रणाली V में बागवानी – सब्जी और पशुधन उत्पादन ।

मछली का बीज उगाने के लिए किफायती पर्यानुकूल हैचरी (इको-हैचरी) की स्थापना

एफपीएआरपी के तहत किसानों को इको-हैचरी के संचालन का डेमो (प्रदर्शन) देकर बड़े पैमाने पर स्पॉन का  उत्पादन किया गया। इसके परिणामस्‍वरूप ग्रामीण भारत में इसे व्यापक रूप से अपनाए जाने की संभावना है। निश्चित रूप से इससे बिहार में मत्स्य बीज उपलब्धता के साथ-साथ मछली उत्पादन में भी वृद्धि होगी।

मवेशियों में रोग

क) फुट-एंड-माउथ रोग (एफएमडी) सबसे प्रमुख पशु रोग है और दूसरे नंबर पर हेमोरेजिक सेप्टीसीमिया का स्‍थान है। सुर्रा, मदहीनता, अस्पष्ट बांझपन के अलावा डेगनाला जैसे रोग, स्तनदाह, गैर-विशिष्‍ट जीआई विकार, एक्टो और एंडो-परजीवी संक्रमण आदि भी बहुत आम हैं। कम दूध देना, देरी से परिपक्वता, रिपीट प्रजनन, मदहीनता, खराब पशु चिकित्सा सेवाएं, पशु उत्पादों के लिए अपर्याप्त बाजार संरचना, विशेष रूप से मंदी की अवधि (मई से जून और अक्टूबर से दिसंबर) के दौरान खास तौर पर हरे चारे की कमी और पशु आहार की उच्च लागत आदि पशु उत्पादन में आने वाली कुछ मुख्‍य बाधाएं हैं।  

बी) गोपशुओं में प्रजनन संबंधी बीमारियों में कृमि संक्रमण के कारण हेयर कोट स्किन और सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी का संकेत दिया। प्रजनन समस्याओं वाले लगभग 90% जानवरों में त्वचा और हेयर कोट में बदलाव जैसे नीरस (डल), खुरदरे, गैर चमकती त्‍वचा और गंजी (एलोपेकिक) खाल आदि पाई गई।   

ग) गोपशुओं में बांझपन से जुड़े आर्थिक नुकसान के समाधान हेतु बिहार में बांझपन के कारणों को जानने हेतु ELISA के उपयोग से कुछ चुनिंदा बैक्टीरिया और वायरल रोगों की उपस्थिति हेतु एक सेरोलॉजिकल सर्वेक्षण किया गया। अध्ययन से पता चला कि बिहार में ब्रुसेलोसिस, लेप्टोस्पायरोसिस, संक्रामक बोवाइन राइनोट्रैसाइटिस (IBR) और बोवाइन वायरल डायरिया (BVD)  को क्रमशः 12.2%, 9.1%, 6.1% और 6.2% तक पाया गया।  

भेड़ और बकरियों के रोग: बिहार में प्रचलित भेड़ और बकरियों के वायरल रोगों में पेस्टे डेस पेटिट्स  रियूमिनेंन्‍ट (पीपीआर) और ब्लू टंग (बीटी) का अध्ययन किया गया। छोटे रोमंथी पशुओं के यादृच्छिक तौर पर एकत्र सीरा नमूनों का c-ELISA द्वारा परीक्षण किया गया और इनके PPR के समग्र व्‍यापकता को 36.65% पाया गया।

कुक्‍कुट आहार के एक घटक के रूप में मखाना चोकर का उपयोग: कुक्‍कुट और बकरियों के राशन में उपयोग के लिए मखाना से प्राप्‍त उपोत्पाद (चोकर + बाहरी आवरण ) का विश्लेषण इसके रासायनिक संघटन के लिए किया गया जिसमें मखाना चोकर में कच्चा प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट और जैविक पदार्थ को क्रमश: 7.10, 86.64, 94.36 प्रतिशत तक तथा बाहरी आवरण में इनके समरूपी मान को 4.75, 86.88 और 91.79 प्रतिशत पाया गया। अध्ययन से पता चलता है कि पोल्ट्री ब्रॉयलर के आहार में उनकी वृद्धि और आहार रूपांतरण दक्षता को प्रभावित किए बिना मखाना चोकर को 6% तक मिलाया जा सकता है। राइस ब्रान को 50% तक प्रतिस्थापित करने पर शुष्‍क पदार्थ का सेवन और पाचन क्षमता में कोई उल्‍लेखनीय अंतर नहीं देखा गया।

फसल-पशुधन आधारित कृषि प्रणाली मॉडल: फसल-पशुधन आधारित कृषि प्रणाली

गोपशु और बकरी प्रजातियों के समेकन हेतु सिंचित और वर्षा आधारित स्थितियों में इन मॉडलों का मूल्‍यांकन किया गया। सघनीकृत डेयरी आधारित उत्पादन प्रणाली में, एक एकड़ मॉडल में 40% क्षेत्र को चारा उत्पादन के लिए छोड़ते हुए 4 संकर गायों को सम्मिलित किया जा सकता है। संकर गायों की दुग्ध पैदावार 2,200 किलोग्राम पाई गई।

पशुधन जल-उत्पादकता का आकलन: भारत के सिंधु-गंगा के मैदानी भागों में पशुधन जल उत्पादकता का आकलन किया गया। सभी गांवों में फसल-पशुधन-जल के परिप्रेक्ष्‍य में संसाधनों की उपलब्धता, फसल पैटर्न, पशुओं की आबादी व उत्पादन सहित विभिन्न संस्थानों की भूमिका के बारे में आधारभूत सर्वेक्षण किया गया है। सिंधु-गंगा के ऊपरी, मध्य और निचले मैदानी भागों में पशुधन जल उत्पादकता का आकलन किया जा रहा है। अध्ययन से पता चलता है कि सिंधु-गंगा के मैदानी भागों में एक लीटर दूध उत्पादन के लिए पैमाने, नस्ल आदि के अनुसार 800- 5,000 लीटर तक पानी की आवश्यकता होती है।

कुछ चुनिंदा वस्तुओं का मूल्य श्रृंखला अध्ययन- बिहार में दूध और सब्जियों का मामला: यह देखा गया कि यहां कुल मिलाकर 9 बाजार श्रृंखलाएं (मार्केटिंग चैनल) हैं जिनमें मूल्‍य में फैलाव सबसे छोटे चैनल में शून्‍य से लेकर सबसे लंबी बाजार श्रृंखला में 40% तक था। दुग्ध उत्पादकों द्वारा दुग्ध विपणन में आने वाली बाधाओं में महंगा पशु आहार, पूंजी और आवास (पशुशाला) की कमी, पशु-बीमा, गर्भधारण समस्‍या और उसके अनुरूप ऋण की कमी को पाया गया। दूध के खुदरा विक्रेताओं ने पूंजी की कमी को सबसे मुख्‍य और उसके बाद भंडारण व परिवहन सुविधा की कमी के साथ-साथ असंगठित बाजार को भी बाधा बताया। उपभोक्ताओं को दो समस्याओं का सामना करना पड़ा जैसे दूध में पानी की मिलावट और इंजेक्शन से गाय का दूध निकालना जिससे दूध की गुणवत्ता कम होती है।  

बिहार में चावल और गेहूं के लिए एक मिश्रित फसल उपज पूर्वानुमान प्रणाली का विकास: यह देखा गया कि हिस्‍टारिकल टाइम सीरीज यील्‍ड डेटा 0,1,1 के क्रम में लॉजिस्टिक मॉडल और ऑटो-रिग्रेसिव एकीकृत मूविंग औसत मॉडल में सटीक बैठते हैं। मौसम के साप्ताहिक प्राचलों और फसल की संभावित पैदावार के बारे में किसानों के आकलन सहित पौधों के लक्षणों के आधार पर स्टेप वाइज रिग्रेशन मॉडल भी फसल उपज वितरण पर फिट बैठता है। दूसरे, यह पाया गया कि अंचलवार पूर्वानुमानों के फलस्‍वरूप, पूर्वानुमान की बेहतर दक्षता प्राप्त होती है। इन पूर्वानुमानित मानों का कंपोजिट अनुमान (अनुमानों के व्युत्क्रमों में परिवर्तनों का उलटा उपयोग करते हुए प्राप्त) के परिणामस्वरूप अधिकतर पूर्वानुमान परीक्षणों में पांच प्रतिशत से कम पूर्वानुमान त्रुटि पाई गई। हालांकि, संपूर्ण बिहार के पूर्वानुमान पर विचार करते समय पूर्वानुमान त्रुटि को इसकी निर्दिष्‍ट सीमा से अधिक पाया गया। इसलिए, विभिन्न मॉडलों को मिलाकर पूर्वानुमान की एक संयुक्‍त प्रणाली का उपयोग करके कृषि जलवायु अंचल के अनुसार पूर्वानुमान का सुझाव दिया जाता है। इस उद्देश्य हेतु लॉजिस्टिक, एआरआईएमए, मौसम आधारित प्रतिगमन मॉडल और किसान मूल्यांकन मॉडल के मॉडल पैरामीटरों को सम्मिलित करके चावल और गेहूं की उपज के लिए बिहार के चार कृषि क्षेत्रों का पूर्वानुमान लगाया गया है।

पटना और बिहार के वैशाली जिले में कृषि ऋण की पहुंच का सामाजिक – आर्थिक विश्लेषण:

फसल का खराब होना और तत्‍पश्‍चात फसल की कम पैदावार, सिंचाई की कमी और उपज की कम कीमत मिलना आदि को फसल ऋण की नाअदायगी/अनियमित अदायगी का सबसे महत्वपूर्ण कारण पाया गया। जहां तक उत्तरदाताओं द्वारा बताई गई ऋण बाधाओं का संबंध है, यह देखा गया कि भ्रष्टाचार, जानबूझ कर देरी करना, बैंकरों द्वारा असहयोग, अज्ञानता/अशिक्षा और किसानों द्वारा स्वयं उधार लेने की अनिच्छा ऋण लेने में प्रमुख बाधाएं पाई गईं।

पटना में उधार देने में बाधाएं (बैंकर के परिप्रेक्ष्य में) थीं – (1) उधारकर्ता का उद्यम स्पष्ट नहीं है, (2) उधारकर्ता का आशय स्पष्ट नहीं है, (3) ऋण – छूट योजना: उधार में सबसे बड़ी बाधा, (4) परियोजना अच्छी तरह से तैयार नहीं की गई है जिससे यह व्‍यवहार्य नहीं है और (5) कुछ उधारकर्ता को जानबूझकर नअदायगी (विलफुल डिफॉल्टर्स) के लिए जाना जाता है। पटना में ऋण की समस्या को दूर करने के सुझाव हैं (1) बैंकरों को ऋण लेने वालों के प्रति सकारात्‍मक दृष्टिकोण रखना चाहिए अर्थात उन्हें किसानों के लिए बैंक योग्य परियोजनाएं बनाने में मदद करनी चाहिए, (2) बैंकरों को निष्पक्ष और पारदर्शी होना चाहिए। उन्हें अनुचित व्यवहारों में लिप्त नहीं होना चाहिए, (3) बैंकों को कभी-कभी गांवों में ऋण मेला आयोजित करना चाहिए, (4) ऋण-माफी योजना ईमानदार और नियमित ऋण चुकाने वालों के लिए अच्छी नहीं है। यह उन्हें ऋण चुकाने में हतोत्साहित करती है परिणामस्‍वरूप वे ऋण का भुगतान नहीं करते हैं (5) किसानों को बैंकिंग, इसकी प्रक्रियाओं, उधार लेने का महत्व और समय पर पुनर्भुगतान, गैर-अदायगी के प्रतिकूल परिणाम, और उद्यमशीलता के प्रति संवेदनशील बनाना चाहिए और (6) विभिन्न प्रकार के औपचारिक/अनौपचारिक प्रशिक्षण संस्थान इस संबंध में पहल कर सकते हैं, किसानों के लिए क्षमता निर्माण कार्यक्रम तैयार करने में बैंक कर्मियों को भी शामिल किया जाना चाहिए।  

बिहार में किसानों द्वारा अपनाई गई प्रक्रियाओं पर कृषि-प्रशिक्षण से प्राप्‍त फीडबैक का मूल्यांकन:

प्रशिक्षण कार्यक्रमों में सिखाई गई कृषि तकनीकों को अपनाने में आने वाली बाधाओं और उनकी सीमा की पहचान की गई। देखा गया कि अधिकांश प्रशिक्षु किसान लगभग सभी प्रशिक्षण कार्यक्रमों से संतुष्ट थे। हालांकि, यह पाया गया कि बिहार में किसानों के कृषि प्रशिक्षण कार्यक्रमों की दक्षता में सुधार करने के लिए, कृषि प्रशिक्षण का विषय सामयिक और आवश्‍यकता के अनुसार होना चाहिए, और इसे जहां तक संभव हो फसल की बुवाई के पहले गांव के पास ही आयोजित किया जाना चाहिए और इसमें खेतों के दौरे और व्यावहारिक ज्ञान प्रदान करने पर अधिक जोर दिया जाना चाहिए।

मखाना उत्पादन और मखाना की आजीविका प्रणाली को प्रभावित करने वाले सामाजिक-संस्थागत मापदंड:

मखाना की शत प्रतिशत खेती दरभंगा और मधुबनी जिले में साहनी समुदाय द्वारा मुख्य व्यवसाय के रूप में की जाती है। जबकि पूर्णिया में केवल 16 प्रतिशत और कटिहार में केवल 18 प्रतिशत मखाना की खेती साहनी समुदाय द्वारा की जाती है। तालाबों का कोई स्वामित्व न होना और कटिहार एवं मधुबनी के मखाना उत्पादकों द्वारा मखाना की खेती के वैज्ञानिक तरीकों के बारे में जानकारी का अभाव ये दो प्रमुख समस्याएं हैं। दरभंगा और पूर्णिया के किसानों द्वारा मखाना की खेती के वैज्ञानिक तरीके का अभाव सबसे प्रमुख समस्या महसूस की गई है। मखाने के प्रसंस्करण के दौरान इसकी पॉपिंग, प्री-हीटिंग और फ्राइंग में महिलाएं (पुरुषों से अधिक) प्रमुख भूमिका निभाती हैं। तालाबों/जल निकायों को सरकार मत्‍स्‍य समितियों को पट्टे पर देती है और मत्‍स्‍य समितियां इन्‍हें अपने सदस्यों को आम तौर पर 25% अधिक दर पर पट्टे पर देती हैं। इन जल निकायों को सदस्यों को पट्टे पर देने से प्राप्त राजस्व ही समिति की आय का स्रोत है। जल निकायों का रखरखाव और नवीनीकरण सदस्यों द्वारा किया जाता है। मत्‍स्‍य समितियां, मखाना की खेती के लिए आदानों के विपणन और खरीद में मदद करती है। निजी तालाब मालिकों द्वारा पट्टे पर देना भी प्रचलन में है और निजी तालाब की लीज अवधि आमतौर पर 3 साल के लिए होती है। वार्षिक किराया 2,000-3,000 रुपये/वर्ष/एकड़ तक होता है।

मखाना उत्पादन में उत्पादन लागत और निवेश-प्राप्ति (इनपुट-आउटपुट) संबंध :

मखाना की खेती दो अलग-अलग स्थितियों में की जाती है। इसमें से एक सुव्‍यवस्थित प्रणाली है जिसमें मार्च से सितंबर के दौरान चावल उगाए जाने वाले निचले खेतों में मखाना उगाया जाता है। मखाना के बाद बोरो/गरमा चावल को उगाया जाता है। इस प्रणाली में खेत को तैयार करने के बाद मखाना की खेत में रोपाई की जाती है। आस-पास के प्राकृतिक जलस्रोतों से मखाना के बीज एकत्र किए जाते हैं। फसल की संपूर्ण अवधि में खेत में 1.5 से 2 फीट का जल स्तर बनाए रखा जाता है। इस प्रणाली में किसान उर्वरक और कीटनाशक का प्रयोग करते हैं। इस प्रकार की खेती पूर्णिया और कटिहार जिले में की जाती है। दूसरी परिस्थिति में मखाना को प्राकृतिक तालाबों में उगाया जाता है। पिछले मौसम के बचे हुए बीज से मखाना की पौद निकलती हैं। कोई रोपाई नहीं की जाती है। इस प्रणाली में उर्वरकों और रसायनों का उपयोग भी नहीं पाया गया है। इस प्रकार की खेती मधुबनी और दरभंगा जिलों में पाई जाती है। दोनों ही स्थितियों (खेत व तालाब) में मखाना उगाने का आर्थिक विश्‍लेषण किया गया। खेतों में मखाना उगाने की दशा में तालाबों की तुलना में अधिक निवेश के कारण लागत अधिक आती है, लेकिन खेतों में उगाए गए मखाना से प्राप्‍त शुद्ध लाभ, तालाब में मखाना की खेती से की तुलना में अधिक होता है। दोनों ही दशाओं में मानव श्रम को लागत का प्रमुख घटक पाया गया।

जल-उत्पादकता को बढ़ाने के लिए किसानों और फील्ड कार्मिकों की क्षमता निर्माण:

किसानों में भागीदारी द्वारा जल प्रबंधन कौशल विकसित करने के लिए एक सप्ताह की अवधि के 50 किसान प्रशिक्षण कार्यक्रम संचालित किए गए। कृषि में जल-उत्पादकता को बढ़ाने के लिए लगभग 2500 किसानों / महिलाओं / युवाओं को प्रशिक्षित किया गया। संपूर्ण बिहार में विशिष्ट विभागों का प्रतिनिधित्व करने वाले 25 विस्तार कार्यकर्ताओं के लिए एक प्रशिक्षक-प्रशिक्षण कार्यक्रम भी आयोजित किया गया। प्रशिक्षण कार्यक्रमों के फलस्‍वरूप हुए ज्ञान के स्तर में वृद्धि के संदर्भ में प्रशिक्षण के प्रभाव का आकलन करने के लिए एक ज्ञान-परीक्षण विकसित किया गया। अध्ययन से पता चलता है कि अधिकांश प्रशिक्षु पुरुष थे और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के थे और उनकी उम्र 21 से 44 वर्ष के बीच थी। उम्र में अत्यधिक अंतर, कृषि में नई पीढ़ी की  

भागीदारी को प्रकट करती है। इनका शिक्षा-स्तर मैट्रिक से ऊपर था और साथ ही उन्‍हें 2 से 16 वर्षों तक कृषि में काम करने का अनुभव भी था। सामाजिक गतिविधियों में इनकी उल्‍लेखनीय भागीदारी पाई गई क्योंकि उनमें से अधिकांश किसान संघों, एसएचजी जैसे सामाजिक संस्थाओं के सक्रिय सदस्य थे। किसानों की सूचना के प्रमुख स्रोतों में समाचार पत्र, टेलीविजन और रेडियो हैं। जल-प्रबंधन पहलुओं में इनके ज्ञान के स्तर में उल्लेखनीय सुधार देखा गया। विस्तार कर्मियों ने नई जानकारी  प्राप्त करने, भागीदारी कौशल विकसित करने, दृष्टिकोण एवं आकांक्षाओं में महत्वपूर्ण बदलाव लाने और पानी की उत्पादकता को बढ़ाने में उल्‍लेखनीय बदलाव महसूस किया। यह अपेक्षा की जाती है कि कृषि में प्रभावी जल-प्रबंधन के लिए संवर्धित शिक्षण को उनके कार्यस्थल में प्रभावी रूप से प्रयुक्‍त किया जाएगा। यह व्यवस्थित मूल्यांकन पहले से चल रहे प्रशिक्षण कार्यक्रम या भविष्य में आयोजित किए जाने वाले प्रशिक्षण कार्यक्रमों को बेहतर बनाने के लिए सुधारात्मक उपाय भी बताएगा जिससे प्रशिक्षण में किए जा रहे निवेश को उचित ठहराया जा सके। चूंकि टिकाऊ खेती के लिए जल संसाधन विकास और प्रबंधन अनिवार्य है, अध्ययन से पता चलता है कि उनमें से कुछ को ही जल से संबंधित तकनीकों का अनुभव प्राप्‍त था। इसलिए, विशेष रूप से पानी की कमी वाले क्षेत्र में उन्हें तकनीकी प्रगति में अद्यतन (अपडेट) रखने की बहुत आवश्यकता है क्योंकि कृषि प्रौद्योगिकियों को अपनाने में वे उत्प्रेरक की भूमिका निभा रहे हैं। जरूरत के अनुसार और कौशल-उन्मुख प्रशिक्षण कार्यक्रमों के आयोजन के माध्‍यम से पैटर्न और विस्तृत अनुभव से प्राप्त सटीक जानकारी का अनुसंधान और विस्तार गतिविधियों में प्रभावी ढंग से उपयोग किया जा सकता है।

बिहार के वंचित क्षेत्रों में स्‍वयं सहायता समूहों (एसएचजी) का स्‍तर और कार्य निष्‍पादन की स्थिति:

समूह के अधिकांश सदस्य 43 वर्ष से कम उम्र के थे, इसलिए इस श्रेणी के सदस्यों को क्षमता निर्माण के माध्यम से आय सृजन गतिविधियों के लिए प्रेरित किया जा सकता है। स्वयं सहायता समूह (एसएचजी) द्वारा उपज की बिक्री आस पास के शहरों में की जाती है, इसलिए, नीतिगत प्रोत्साहन के माध्यम से उन्हें बढ़ावा देने की अत्यधिक आवश्यकता है ताकि प्राप्‍त उपज का अन्य राज्यों और विदेशों में भी विपणन किया जा सके। प्रगतिशील किसान, सूचना का प्रमुख और विश्वसनीय स्रोत हैं। अत: उन्हें विस्तार एजेंट के विकल्‍प के तौर पर इस कार्य में लगाया जा सकता है क्योंकि विस्तार एजेंटों और किसानों का अनुपात दिन प्रतिदिन अधिक होता जा रहा है। एसएचजी का सदस्य होने के नाते, सामाजिक-आर्थिक उत्थान; शिक्षा और प्रशिक्षण; विपणन और उद्यमिता के गुण; प्रौद्योगिकी अपनाने और भागीदारी अनुसंधान, और बैंकिंग/क्रेडिट पहलू क्षेत्रों में एसएचजी सदस्यों के दृष्टिकोण में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन देखा गया। इसलिए, यह सिफारिश की जाती है कि एसएचजी का उपयोग क्षेत्र/राज्य/देश में कृषि प्रौद्योगिकियों के तेजी से हस्तांतरण के लिए किया जा सकता है। अधिकांश सदस्यों को अपनी गतिविधियों के लिए अल्पावधि ऋण की आवश्यकता होती है इसलिए नाबार्ड या किसी अन्य वित्तपोषण एजेंसी से सुनिश्चित ऋण का प्रावधान अवश्‍य होना चाहिए।

बिहार में सिंचित पारिस्थितिकी तंत्र के लिए विविध फसल प्रणाली का विकास:

सभी फसल प्रणालियों के चार फसल-चक्र पूरे हो चुके हैं। चावल तुल्यांक उपज के सामूहिक (पूल्‍ड) विश्लेषण से पता चलता है कि प्रयोगों के सभी वर्षों के दौरान, विभिन्‍न फसल-प्रणालियों के बीच महत्वपूर्ण अंतर था।  चावल-टमाटर-लौकी (40.20 टन/हे.) और उसके बाद क्रमश: चावल-आलू-प्याज (30.89 टन/हे.), चावल-धनिया- भिंडी (27.12 टन/हे.), चावल-गाजर-लोबिया (25.33 टन/हे.) और चावल-सरसों-टमाटर (24.29 टन/हे.) में अधिकतम उपज समानता दर्ज की गई। विविधता सूचकांक (DI) का मान शून्य से एक के बीच पाया गया। DI का उच्च मान, फसल-विविधीकरण के उच्च स्तर को बताता है। परिणामों से यह स्पष्ट है कि किसानों की सभी श्रेणियों के बीच विविधता सूचकांक (DI) का मान मध्‍यम आकार के खेतों में 0.299 से छोटे आकार के खेतों में 0.903 के बीच तथा औसत मान 0.643 था। इससे इस बात को बल मिलता है कि खेत का आकार जितना छोटा होता   

है, फसल-विविधता का स्तर उतना ही उच्‍च होता है। किसानों के फसल-विविधता पैटर्न के अवलोकन से यह भी पता चलता है कि अधिकांश किसानों के खतों में उच्च फसल-विविधता (46.4 प्रतिशत) और उसके बाद मध्यम (35.7 प्रतिशत) और निम्न फसल-विविधता (17.8 प्रतिशत) स्तर पाया गया।

मध्य बिहार के सिंचित इको-सिस्‍टम में विविधीकृत फसल प्रणाली की जल और पोषक तत्वों की आवश्यकता पर अध्ययन:

सभी प्रकार की विविधीकृत फसल-प्रणालियों के दो फसल चक्र पूरे हो चुके हैं और विभिन्न फसलों से प्राप्‍त उपज को चावल तुल्‍यता के संदर्भ में परिवर्तित किया गया। चावल की उपज तुल्यता के परिणामों से पता चला कि प्रयोग के दोनों वर्षों के दौरान, फसल प्रणाली, सिंचाई के स्तर, पोषक तत्वों और इनके परस्‍पर प्रभाव के बीच महत्वपूर्ण अंतर पाया गया। फसल प्रणालियों में क्रमश: धान-टमाटर-लौकी (40.49 टन/हे.) और उसके बाद चावल-आलू-प्याज (33.45 टन/हे.), चावल-गाजर-लोबिया (21.91 टन/हे.), चावल-धनिया-भिंडी (19.73 टन/हे.) और चावल-सरसों-टमाटर (10.84 टन/हे.) में सर्वाधिक उपज समानता दर्ज की गई। सिंचाई के स्तरों में अधिकतम उपज समतुल्यता को ईष्‍टतम स्‍तर (25.83 टन/हे.) पर और उसके बाद उप-इष्टतम स्तर (24.74 टन/हे.) पर दर्ज किया गया। पोषक तत्वों के स्तर पर अधिकतम उपज तुल्यता को अनुशंसित स्तर (26.09 टन/हे.) पर और इसके बाद उर्वरक के अनुशंसित स्तर के 50% पर दर्ज किया गया।

सिंचित अपलैंड (उपरिभूमि) के सीमांत किसानों के लिए सब्जी-आधारित एकीकृत कृषि प्रणाली का विकास:

सीमांत किसानों के लिए सब्जी आधारित (एक एकड़) एकीकृत कृषि-प्रणाली विकसित की गई है जिसमें सब्जियों की फसल को खाद्यान्‍न फसलों, चारा फसलों, बकरी पालन और वर्मी कंपोस्ट के साथ शामिल किया गया। खाद्यान्‍न फसलों में चावल-आलू-मूंग और सब्जियों में करेला-टमाटर-लौकी को सबसे अच्‍छा फसल-क्रम पाया गया। खाद्यान्‍न फसल के रूप में चावल-आलू-मूंग और सब्जियों में करेला-टमाटर-लौकी के साथ बकरी पालन को भी अपनाने से और 2.5 टन बकरी खाद और 0.7 टन वर्मी-कंपोस्‍ट के पुन:चक्रण (रीसाइक्लिंग) से प्रति एकड़ 75,520 रुपये का शुद्ध लाभ प्राप्‍त हुआ।

  • जलवायु परिवर्तन के विभिन्‍न परिदृश्यों के तहत अनुकूलन योजनाओं को तैयार करने के लिए ब्रह्मनी नदी बेसिन और भवानी नदी बेसिन में जल संसाधनों की उपलब्धता पर जलवायु परिवर्तन प्रभाव का आकलन।
  • सोन कमांड के रानीतालाब और बिक्रम गेट (लॉक्‍स) के बीच स्थित विभिन्न सहायक नदियों से इष्टतम जलराशि छोड़ने हेतु नहर परिचालन अनुसूची का विकास।
  • जल संभर (वाटर शेड) विकास योजना के लिए क्षेत्रीय मानकों के विकास हेतु ब्राह्मनी नदी घाटी और डीवीसी हजारीबाग के विभिन्न उप-घाटियों हेतु IHACRES मॉडलों की जांच ।

प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन- लक्षण वर्णन, वर्गीकरण, संरक्षण और प्रबंधन:

ए) विभिन्न फल वृक्षों में आम के 180, लीची के 42, अमरूद के 38, सपोटा के 12 और बेल के 10  जीनरूपों (जीनोटाइप) का लक्षण वर्णन किया गया और उन्‍हें फील्ड जीन बैंक में संरक्षित किया गया।

बी) टमाटर, बैंगन, ककड़ी, तोरई (रिज गॉर्ड), कद्दू, स्पंज गॉर्ड, परवल (प्‍वाइंटेड गॉर्ड), मिर्च, लौकी, करेला, हरी मटर, फ्रेंच बीन, लोबिया, डोलिकस बीन, सब्‍जी सोयाबीन के उन्‍नत वंशक्रमों का मूल्यांकन किया गया।   

ग) चौलाई, पालक, मेथी, धनिया, सहजन, मालाबार नाइट शेड, चीनी पत्तागोभी, चेनोपोडियम/बथुवा, इपोमोला / कालिमास, इवी गॉर्ड, स्‍पाइन गॉर्ड, चो-चो, फाबा बीन, विंज्‍ड सेम, लाइमा बीन, सोर्ड बीन, वेजीटेबल पिजन पी, याम बीन (रतालू) का संग्रहण और रखरखाव किया गया।

घ) पुरुलिया में मृदा के भौतिक लक्षण-वर्णन और वाटरशेडों के वर्गीकरण का कार्य किया गया।

ड़.) पूर्वी पठार और पहाड़ी स्थितियों में पानी के बहु उपयोग के माध्यम से भूमि और जल उत्पादकता बढ़ाने के लिए एक मॉडल विकसित किया गया है

च) ऑयस्‍टर मशरूम के व्यावसायिक उत्पादन के लिए पानी की आवश्यकता का मानकीकरण किया गया।

छ) कद्दूवर्गीय सब्जियों के लिए ग्रेविटी उपसतही ड्रिप और उर्वरण (फर्टिगेशन) पर अध्‍्य्यन से यह संकेत मिला कि लेटरल (पार्श्वों) को उपसतह पर रखने के कारण उपज में वृद्धि होती है।

ज) IHACRES (यूनिट हाइड्रोग्राफ की पहचान) की जांच और पुष्टिकरण के परिणामों से संकेत मिलता है कि ब्राह्मनी नदी घाटी (बेसिन) के सभी चार उप जलग्रहण क्षेत्रों में IHACRES मॉडल ने अच्‍छा प्रदर्शन किया।

उत्पादकता और लाभप्रदता में वृद्धि:

 क) विभिन्न सब्जियों की फसलों में, टमाटर की संकर किस्‍में स्वर्ण विजया और स्वर्ण दीप्ति, बैगन की एक संकर किस्‍म स्वर्ण नीलिमा, लोबिया की पोल प्रकार की किस्‍म स्वर्ण हरित, स्‍नोपी का एक वंशक्रम स्‍वर्ण तृप्ति, सब्‍जी सोयाबीन की किस्म स्वर्ण वसुंधरा, डोलिकस बीन की लाइन HADB-3 और स्‍वर्ण ऋतुवर, लोबिया की एक लाइन स्वर्ण मुकुट, परवल की लाइन स्वर्ण सुरुचि, फ्रेंच बीन के वंशक्रम HAFB-3, HAPB-4 को जारी (रिलीज़) करने के लिए चिन्‍हांकित किया गया।

बी) आंवला आधारित फसल प्रणाली के तहत शहतूत (मलबेरी) को अंत:फसल के रूप में लगाने की व्यवहार्यता का सफलतापूर्वक प्रदर्शन किया गया ।

सी) वर्षा पर निर्भर पठारी दशाओं में, आम की बहुस्‍तरीय फसल प्रणाली जिसमें अमरूद को पूरक फसल तथा फ्रेंच बीन को अंत: फसल के रूप में उगाया जाता है को सर्वाधिक लाभदायक पाया गया है और साथ ही आंवला आधारित बहुस्‍तरीय फसल प्रणाली में अमरूद को पूरक फसल तथा मूंगफली को अंत:फसल के तौर पर उगाने को सर्वाधिक लाभदायक पाया गया है। ।

घ) लौकी-लोबिया-टमाटर की सब्ज़ी आधारित फसल-क्रम को पूर्वी पठार और पहाड़ी दशाओं में सबसे अधिक लाभदायक पाया गया है।

ई) झारखंड में अति-उच्च सघनता वाले अमरूद के बागों के लिए प्रौद्योगिकी का मानकीकरण किया गया है।

एफ) पूर्वी पठार और पहाड़ी जलवायु में परवल की खेती के लिए, पंक्तियों के बीच की दूरी 50 सेमी, प्रति हेक्टेयर 80 किग्रा नाइट्रोजन और 30 किग्रा फास्फोरस के प्रयोग से अधिकतम उपज प्राप्त की जा सकती है।

जी) लौकी की किस्‍म अर्का बहार में, कुक्‍कुट खाद को 2.5 टन/हे. तथा रासायनिक उर्वरकों को 30 किग्रा N, 20 किग्रा P2O5 और 20 किग्रा K2O प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करने पर बिक्री योग्‍य फलों की सबसे अधिक उपज (183.33 क्वि. /हे.) दर्ज की गई।

एच) कैल्शियम क्‍लोराइड 10-6M के साथ बीजों का उपचार करने पर प्याज की किस्‍म अर्का निकेतन के बीजों के अंकुरण का औसत सर्वाधिक पाया गया जबकि कैल्शियम क्‍लोराइड 10- 4M से उपचारित करने पर मिर्च की किस्‍म केए -2 में अंकुरण का सर्वाधिक औसत प्रतिशत पाया गया।

आई) आम की किस्‍म आम्रपाली में प्राथमिक प्ररोह की 120 सेमी लंबाई तथा द्वितीयक प्ररोहों की 60 सेंटीमीटर लंबाई सहित 1.5 सेमी पर संपूर्ण छंटाई करने पर छत्र (कैनोपी) के आकार, छत्र के अंदर प्रकाश की पहुंच तथा उपज के संबंध में आशाजनक पाया गया है।

जे) पूर्वी पठार और पहाड़ी परिस्थितियों में अमरुद की लाभप्रदता बढ़ाने के लिए 20 अप्रैल तक 50 सेमी के प्ररोह की लंबाई के छत्र को 50% तक करने की सिफारिश की गई है।

के) नाशपाती में 10% थायोयूरिया का दो बार छिड़काव करने पर अधिकतम फूल और उपज प्राप्त हुई।

एल) लीची की शाही किस्‍म में 50 सेमी लंबाई वाले प्ररोहों से फलों को लेना लाभदायक पाया गया।

एम) लीची के पौधों को शैडनेट (30% और 50% प्रकाश संचरण) के साथ कवर करने पर तुड़ाई के समय को गैर-उपचार (कंट्रोल) की अपेक्षा अधिक अवधि तक (23 दिन) बढ़ाया जा सकता है।

एन) एस्परजिलस नाइगर या ट्राइकोडर्मा विरिडे या स्यूडोमोनास फ्लोरेसेंस जैसे कवक विरोधी (एंटागोनिस्‍ट) के मृदा अनुप्रयोग के परिणामस्वरूप पौधारोपण के 10 साल बाद भी अमरूद के गुवावा विल्‍ट की व्‍यापकता में उल्लेखनीय कमी आई है।

ओ) सोलेनसियस वर्ग की सब्जियों में बैक्टीरियल विल्ट के समेकित प्रबंधन हेतु करंज केक/चूना/पीजीपीआर के प्रयोग से बैक्टीरिया की संख्‍या में उल्लेखनीय कमी पाई गई।

पी) अकेले या मिश्रित रूप में कैप्टॉन और कार्बेन्डाजिम से टमाटर के बीजों की ड्रेसिंग करने पर बाहरी बीज-जनित रोगाणुओं के नियंत्रण में प्रभावी पाया गया है।

क्‍यू) झारखंड में खेती के लिए दूधिया मशरूम (कैलोसिब इंडिका ) के विभेद (स्ट्रेन) CI-1 (M1), पैडी स्‍ट्रा मशरूम  (वोल्वेरेला, वोल्वेसिया) के विभेद (स्ट्रेन) VV-11 को सबसे उपयुक्त पाया गया। 

आर) ऑयस्‍टर मशरूम की खेती के लिए, धान के पुआल को सबसे उत्‍तम कृषि अपशिष्‍ट (एग्रोवेस्‍ट) पाया गया जिसके रासायनिक और उबलने के तरीकों में 110.8 और 117.0% जैविक दक्षता पाई गई।

एस) करेले के बीज उत्पादन के लिए 400 मीटर की अलगाव दूरी (आइसोलेशन डिस्‍टेंस) को सर्वाधिक प्रभावी पाया गया।

टी) कद्दू वर्गी (कुकुरबिट्स) सब्जियों के डाउनी मिल्‍ड्यू फफूंदी के महामारी विज्ञान का अध्‍य्यन किया गया।

यू) बेल गूदे के भंडारण की दशाओं का मानकीकरण किया गया।

वी) शुष्‍क इंस्‍टेंट मशरूम सूप-मिक्‍स तैयार करने की प्रक्रिया विकसित की गई।

मखाना आधारित एकीकृत जलीय कृषि-प्रणाली द्वारा जल निकायों की उत्पादकता में वृद्धि के लिए प्रबंधन रणनीति:

ए) मखाना के तालाबों की मृदा उर्वरता में सुधार हुआ है। इन तालाबों की मिट्टी की वर्तमान पोषक स्थिति गैर मखाना तालाबों की मिट्टी की तुलना में बहुत अधिक थी।

बी) मखाना तालाबों की जैविक विशेषताओं ने फाइटोप्लैंकटन, पेरीफाइटन, जूप्‍लैंकटन और बेंथिक जीवों की विविधता में प्रचुरता का संकेत दिया।

सी) मखाना की खेती के साथ-साथ मछली पालन को अपनाने से संसाधनों के उपयोग में अधिक दक्षता मिलती है तथा अतिरिक्त आहार की प्राप्ति के साथ मखाना उत्पादकों की आय में भी वृद्धि होती है।

डी) स्थानीय बाघमती नदी और लोकल मछली बाजार से मछलियों की 38 प्रजातियां एकत्र की गईं। मछली के नमूनों को संरक्षित किया गया और संस्‍थान के मखाना अनुसंधान केंद्र में एक मछली गैलरी तैयार की गई है। यह जानना महत्वपूर्ण है कि अफ्रीकी कैट फिश- क्लारियस गेरिपिनस दरभंगा क्षेत्र में पाई जाती है। इस मत्‍स्‍य  प्रजाति को नहीं पालना चाहिए क्योंकि यह अत्यधिक मांसभक्षी है।

ई) यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि एक मत्स्य तालाब में, डाफ्निया लूम्‍नहोल्त्ज़ी को प्रचुर मात्रा में पाया गया है। इसमें पृष्‍ठवर्म (कारापेस) पाया जाता है। अत: यह सुझाव दिया जाता है कि जब यह प्रजाति पानी में मौजूद हो तो मछली के लार्वा को उसमें नहीं छोड़ा जाए क्योंकि यह मछलियों के बकोफेंरिंक्‍स को चोक कर देगा और मछली मर जाएगी।

बिहार के वंचित जिलों में जरूरत आधारित समेकित कृषि-प्रणाली मॉडल द्वारा सतत आजीविका सुधार:

ए) दरभंगा सदर ब्लॉक समूहों, गांवों और परिवारों का बेस लाइन सर्वेक्षण कार्य पूरा किया गया। विभिन्न कृषि प्रणाली मॉडल/प्रौद्योगिकियों अर्थात् मखाना के साथ मछली पालन और बागवानी घटक, वर्मी-कंपोस्टिंग, मशरूम की खेती, मुर्गी और मधुमक्खी पालन के लिए विशिष्ट स्‍थलों की पहचान की गई ।

बी) दरभंगा सदर प्रखंड के चयनित किसानों के खेतों में बागवानी घटकों, वर्मी-कंपोस्टिंग, मधुमक्खी पालन के साथ मखाना सह मछली के मॉडल को प्रदर्शित किया गया है।

ग) एकीकृत मखाना सह मत्‍स्‍य तालाब आधारित कृषि प्रणाली में मुर्गीपालन, वर्मी कंपोस्‍ट, बतख पालन जैसे हस्‍तक्षेपों के साथ मखाना के मेड़ों पर पॉलीहाउस के लिए नर्सरी पौद को उगाना तथा खड़ी ढलानों के मेहराब पर मौसमी सब्जियों तथा केला जैसे फल वृक्षों की खेती से जल उत्पादकता बढ़ाने की दिशा में उत्साहजनक परिणाम मिले। 

मखाना में आनुवंशिक विविधता पर अध्ययन:

ए) मखाना में संकरण कार्यक्रम के लिए उपयुक्त जनकों का पता लगाने के लिए, वर्ष 2010-11 के दौरान आनुवंशिक विविधता पर एक अध्ययन किया गया था। इस प्रयोग में आरसीएम, दरभंगा में खेतों पर 36 जर्मप्लाज्म (मणिपुर से 29 और बिहार से 7) का मूल्यांकन किया गया। विशिष्ट परिणामों के अलावा, इन प्रायोगिक सामग्रियों से, प्रत्‍येक पौधे के उपज प्रदर्शन के आधार पर बेहतर बीज उपज (1325 ग्राम, 1112 ग्राम, 1027 ग्राम, और 926 ग्राम) वाले 4 उत्‍कृष्‍ट पौधों का चयन किया गया।

बी) इस अध्ययन से पता चलता है कि 1.25 x 1.25 मीटर की दूरी बनाए रखना मखाना फसल की वैज्ञानिक खेती के लिए एक आदर्श स्‍पेसिंग है।  

सी) पूसा बासमती -1, पूसा सुगंध -5 और पीएनके -381 की बीज उपज के तुलनात्मक प्रदर्शन से संकेत मिलता है कि ये किस्में, कंट्रोल की तुलना में औसतन 35% बेहतर पाई  गई हैं। किए गए परीक्षण से यह स्पष्ट है कि मखाना-चावल फसल प्रणाली में जैविक चावल की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है।

क्र. सं.  

चावल की किस्‍म का नाम

मखाना उगाए गए खेतों में जैविक चावल की बीज उपज (क्वि./हे.)

गैर मखाना वाले खेतों में जैविक चावल की बीज उपज (क्वि./हे.)

कंट्रोल पर श्रेष्ठता (%)

1

पूसा बासमती -1

37.52

25.30

32.57%

2

पूसा सुगंधा -5

40.34

22.93

43.16%

मखाना आधारित फसल प्रणाली में चावल की विभिन्न किस्मों का तुलनात्मक प्रदर्शन:

ए) इस परीक्षण के परिणाम यह दिखाते हैं कि मखाना आधारित फसल-प्रणाली में चावल की खेती के लिए PRH-10 किस्‍म अधिक उपयुक्त है।

बी) मखाना-बरसीम फसल प्रणाली का विकास: इस परीक्षण में केवल 0.3 मीटर पानी की गहराई में मखाना की खेती की गई थी। 20 अप्रैल 2010 को मखाना को रोपा गया और 18 अगस्त 2010 को काटा गया। मखाना की बीज उपज 21.6 क्वि./हे. दर्ज की गई। उसी खेत में 1 नवंबर 2010 को खेती की मानक प्रक्रियाओं को अपनाते हुए बरसीम बोई गई। इस खेत से प्राप्‍त कुल चारा उपज 48 क्वि./हे. थी। 

मखाना एवं अन्य जलीय फसलों का संग्रह, लक्षण वर्णन, विवरण, प्रलेखन, संरक्षण, जैव रासायनिक मूल्यांकन, मूल्यवर्धन और उपयोग:

आरसीएम, दरभंगा में पहले से उपलब्ध मखाना जर्मप्लाज्म का उपयोग करते हुए, मखाना के 14 शुद्ध वंशक्रमों (लाइनें) को विकसित किया गया। मखाना (स्थानीय चैक (15.6 क्वि./हे.) की तुलना में 28.4 क्वि./हे. की उपज वाले) के एक संभाव्‍य विभेद की पहचान की गई। दरभंगा और मधुबनी जिलों के 5 प्रगतिशील किसानों के खेत में इस स्‍ट्रेन (विभेद) की वास्तविक निष्‍पादन क्षमता को जानने के लिए इस उत्‍कृष्‍ट विभेद के 60 किग्रा बीज का वितरण किया गया।