पूर्वी क्षेत्र के लिए आईसीएआर अनुसंधान परिसर, पटना

ग्यारहवीं योजना के अंतिम चरण में, भारत के पूर्वी राज्यों में कृषि उत्पादन से सम्बंधित मुद्दों को संबोधित करने हेतु एक जनादेश के साथ पूर्वी क्षेत्र के लिए भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद् का अनुसन्धान परिसर की स्थापना की गई | संस्थान २२ फरवरी २००१ में अस्तित्व में आया जिसका मुख्यालय पटना में अवस्थित है तथा दरभंगा, बिहार एवं रांची, झारखण्ड में क्षेत्रीय अनुसन्धान केंद्र है | इस काम्प्लेक्स (परिसर) के साथ बक्सर स्थित कृषि विज्ञान केंद्र भी जुड़े हुए हैं | स्थापना के साथ ही इस संसथान में पूर्वी क्षेत्र के कृषि विकास हेतु भूमि एवं जल संसाधनों के प्रबंधन, फसल, बागवानी, जलीय फसलों, मछली पालन, पशु एवं कुक्कुट, कृषि प्रसंस्करण तथा सामाजिक – आर्थिक पहलुओं से सम्बंधित विभिन मुद्दों के सम्पूर्ण समाधान हेतु अनुसन्धान कार्य शरू कर दिये गाये है ताकि इस क्षेत्र के संसाधन हीन गरीब किसानो की आजीविका को सुधारा जा सके |

निदेशक संदेश

भारत का पूर्वी क्षेत्र प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध है | हालाँकि इसकी क्षमता को कृषि उत्पादकता के विकास, गरीबी उन्मूलन एवं आजीविका में बढोतरी के लिए पूर्ण रूप से इस्तेमाल नहीं किया जा सका |

इस क्षेत्र में ३१.४ मिलियन हेक्टेयर शुद्ध बुआई क्षेत्र है | हालाँकि मुख्य कृषि-बागबानी फसलो एवं मात्स्यिकी की उत्पादकता यहाँ की उत्पादन क्षमता की तुलना में कम है |

इस क्षेत्र में लगभग ६९% सीमांत कृषक है | नवीनतम अथवा आधुनिक कृषि प्रधोगिकियों को कार्यान्वयन करने में छोटे एवं टुकड़ों में विभाजित जोत यहाँ की सबसे बड़ी बाधा है |

इसके अलावा मृदा की अम्लता एवं क्षारीयता/लवणता, जिसकी चपेट में लगभग ११.३ मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र है, जो काफी हद तक मुख्य फसलों की उत्पादकता को प्रभावित करती है | सामान्यत: मृदा की अम्लता/लवणता, सबसे कम प्रति व्यक्ति आय, लगातार बढ़ती आबादी, प्रति वर्गमीटर अधिक जनसंख्या घनत्व, भंडारण, प्रसंस्करण, एवं विपणन की मूलभूत संरचनाओं की कमी भी पूर्वी क्षेत्र में कम कृषि विकास के लिए जिम्मेवार अन्य कारक हैं| पूर्वी क्षेत्र में विशेषकर असम के मैदानी क्षेत्रों, बिहार, छातीसगढ, ओडिशा एवं झारखण्ड में भू-जल का भी उपयोग बहुत कम होता है| भू-जल के उपयोग को बढावा देने के लिए उपयुक्त प्रौधोगिकियों के साथ-साथ अन्य पद्दतियो के संयोजन से यद्दपि कृषि प्रबलता (Cropping Intensity) में बृद्धि तथा उत्पादन में उल्लेखनीय बढोतरी होगी| इसके अतिरिक्त पूर्वी क्षेत्र में जल उत्पादकता भी काफी कम (०.२१ – ०.२९ कि.ग्रा./मी.३ ) है |

इस क्षेत्र में अच्छी नस्ल के पशु, चारा एवं भूसा तथा पर्याप्त पशुओं के स्वस्थ सुरक्षा व्यवस्था की भी अभाव है| पूर्वी क्षेत्र के काफी बड़े हिस्से में सुनिश्चित सिचाई का भी प्रावधान नहीं है| परिणामस्वरूप अल्प समय का सुखाड़ भी कृषि उत्पादन की स्थिरता पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है| एक अनुमान के मुताबिक, लगभग १० मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र सूखे से प्रभावित है| यह क्षेत्र विभिन प्रकार के जैवभौतिक समस्याओं से भी घिरा हुआ है जैसे खरीफ के मौसम में जल का अधिक जमाव या बाढ़ आना | पठारी क्षेत्रों में, कम उपजाऊ लाल-पीली लैटेरेटीक मृदा, ऊँची-नीची/असमतल स्थालाकृति तथा अधिक वर्षा के कारण जल का उपवाह, मृदा अपरदन एवं भू-क्षरण निरंतर होता रहता है|